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सूयगडो १
अध्ययन १० : टिप्पण ७५-७७ हमारे निर्धारित पाठ के अनुसार इसका अर्थ है-सत्य निर्वाण है और संपूर्ण समाधि है।
वृत्तिकार ने मृषावादवर्जन को संपूर्ण भावसमाधि और निर्वाण माना है । स्नान, भोजन आदि से उत्पन्न तथा शब्द आदि विषयों से संपादित सांसारिक समाधि अनैकान्तिक और अनात्यन्तिक होने के कारण अथवा दुःख के प्रतिकाररूप होने के कारण असंपूर्ण होती है।
श्लोक २३:
७५. एषणा द्वारा लब्ध शुद्ध आहार (सुद्धे)
चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-याचना से उपलब्ध अथवा अलेपकृत आहार ।'
वृत्तिकार ने उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से रहित आहार को शुद्ध कहा है।' ७६. दूषित न करे (ण दूसएज्जा)
इसका तात्पर्य यह है-मुनि ने आहार की एषणा की। उसे शुद्ध आहार प्राप्त हुआ । किन्तु उसको खाते समय वह मनोज्ञ वस्तु पर रागभाव और अमनोज्ञ वस्तु पर द्वेषभाव कर उसको दूषित न करे । वृत्तिकार ने एक सुंदर गाथा उद्धृत की है
'बायालीसेसणसंकडं मि गहणंमि जीव ! न ह छलिओ।
इण्डिं जह न छलिज्जसि मुंजंतो रागदोसेहिं ।' -रे जीव ! बयालीस दोष रूप गहन संकट में तूने धोखा नहीं खाया । यदि तू इस भोजन को करता हुआ राग-द्वेष से धोखा नहीं खाएगा तो तेरा कार्य सफल होगा।' ७७. उसमें मूच्छित और आसक्त न हो (अमुच्छितो अणज्झोववण्णो)
अमूच्छित का अर्थ है कि मुनि मनोज्ञ आहार मिलने पर भी उसके प्रति राग न करता हुआ भोजन करे ।
अनध्युपपन्न का अर्थ है-आसक्त न हो । बार-बार एक ही प्रकार के आहार को पाने की इच्छा करना उसके प्रति रही हुई आसक्ति का द्योतक है । मुनि ऐसा न करे । केवल संयम-निर्वाह मात्र के लिए आहार करे । मनोज्ञ उपहार मिलने पर प्रायः ज्ञानी पुरुषों के मन में भी उसके प्रति विशेष अभिलाषा उत्पन्न हो जाती है, इसलिए आहार के प्रति मूर्छा और आसक्ति नहीं रखनी चाहिए।' कहा हैं
भुत्तभोगो पुरा जोवि, गोयत्यो वि य माविओ।
संतेसाहारमाईसु सोवि खिप्पं तु खुब्मइ ॥ -जो भुक्तभोगी है, गीतार्थ और भावितात्मा है, वह भी मनोज्ञ आहार को पाने के लिए लालायित हो जाता है।' १. वृत्ति, पत्र १९६ : 'एतदेव' मृषावादवर्जनं 'कृत्स्नं'- संपूर्ण भावसमाधि निर्वाणं चाहुः, सांसारिका हि समाधयः स्नानभोजनादि
जनिताः शब्दादिविषयसंपादिता वा अनैकान्तिकानात्यन्तिकस्वेन बुःखप्रतीकाररूपत्वेन वा असंपूर्णा वर्तन्ते । २. चूणि, पृ० १९२ : सुद्ध जाइओलद्ध............"अधवा सुखं अलेवकडं । ३. वृत्ति, पत्र १९७ : उद्गमोत्पादनैषणाभिः 'शुद्ध'-निर्दोषे । ४. वृत्ति, पत्र १९७ : प्राप्ते पिण्डे सति साधू रागद्वेषाभ्यां न दूषयेत् । ५. वृत्ति, पत्र १९७। ६. वृत्ति, पत्र १९७ : न मूछितोऽमूछितः-सकृदपि शोभनाहारलाभे सति गुद्धिमकुर्वन्नाहारयति, तथा अनध्युपपन्नस्तमेवाहारं पौन:पुन्ये.
नानभिलषमाणः केवलं संयमयात्रापालनार्थमाहारमाहारयेत्, प्रायो विदितवेद्यस्यापि विशिष्टाहारसन्निधावभिलाषा
तिरेको जायत इत्यतोऽमूछितोऽनध्युपपन्न इति च प्रतिषेधद्वयमुक्तम् । ७.वृत्ति, पन १९७।
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