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________________ सूयगडो १. ४५० अध्ययन १०: टिप्पण ७२-७४ स्वरूप प्राणी जन्म, जरा, मरण, अप्रियसंवास आदि के दुःखों को भोगता है, नरक आदि यातना-स्थानों में जोता है।' 'हिंसा' शब्द केवल एक संकेत मात्र है । इससे समस्त सावध योग का ग्रहण किया गया है । चूर्णिकार ने इस श्लोक का चौथा चरण-'णेव्वाणभूते व परिब्बएज्जा' माना है। वृत्तिकार ने इसे पाठान्तर के रूप में स्वीकार किया है । इसका अर्थ है-जैसे मुक्त आत्मा अव्याबाध सुख में स्थित होता है, निर्व्यापार होने के कारण वह किसी का उपघात नहीं करता, वैसे ही निर्वाण की साधना करने वाला मुनि जो अभी तक निर्वृत नहीं हुआ है, वह नित्त की तरह परिब्रजन करे। ७२. अपने आपको पाप से बचाए (पावाओ अप्पाण णिवट्टएज्जा) जो मुनि शास्त्रविहित अनुष्ठान में प्रवृत्ति करने वाला है वह सबसे पहले निषिद्ध आचरणों से निवर्तित हो, क्योंकि कारण के नाश से ही कार्य का नाश होता है। जब तक कारण का संपूर्ण नाश नहीं होता तब तक कार्य से छुटकारा नहीं मिल सकता। अतः जो मुनि समस्त कर्मों के क्षय की कामना करता है उसको सबसे पहले आस्रवों का निरोध करना होता है।' श्लोक २२: ७३. आत्मगामी मुनि (अत्तगामी) इसके संस्कृत रूप दो हो सकते हैं- आत्मगामी और आप्तगामी । वृत्तिकार ने दोनों रूपों के आधार पर इसके तीन अर्थ किए हैं १. आप्त का एक अर्थ है- मोक्ष-मार्ग । मोक्ष-मार्ग की ओर जाने वाला आप्तगामी होता है। २. आप्त का दूसरा अर्थ है--सर्वज्ञ । सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर चलने वाला आप्तगामी होता है। ३. आत्मा का हित करने वाला, अपना हित करने वाला। चूर्णिकार ने इस पद के स्थान पर 'अत्तकामी' पद मान कर इसका अर्थ आत्मनिःश्रेयस् की कामना करने वाला किया है।" ७४. यह सत्य निर्वाण और संपूर्ण समाधि है (णिब्वाणमेयं कसिणं समाहि) चुणिकार ने "णिव्वाणमेवं' पाठ मान कर व्याख्या की हैं। उनके अनुसार इसका अर्थ है-'इस प्रकार निर्वाण पूर्ण समाधि है।' स्नान-पान आदि जितने भी सांसारिक निर्वाण हैं वे सब अपूर्ण हैं, इसलिए वे अनैकान्तिक और अनात्यन्तिक हैं। केवल निर्वाण ही ऐकान्तिक और आत्यन्तिक है।' १. (क) चूणि, पृ० १६१ : हिंसप्पसूताणि दुहाणि मत्ता, हिंसातः प्रसूतानि हिंसापसूताणि जाति-जरा-मरणा-ऽप्रियसंवासादीनि नरकादि दुःखानि च अट्ठविधकम्मोदयनिष्फण्णाणि । (ख) वृत्ति, पत्र १९६ : हिंसा-प्राणिव्यपरोपणं तया ततो वा प्रसूतानि-जातानि यान्यशुभानि कर्माणि तान्यत्यन्तं नरकादिषु यातना स्थानेषु दुःखानि-दुःखोत्पादकानि वर्तन्ते। २. (क) चूणि, पृ० १६१। (ख) वृत्ति, पत्र १९६ । ३. वृत्ति, पत्र १६६ । विहितानुष्ठाने प्रवृत्ति कुर्वाणस्तु पूर्व तावन्निषिद्धाचरणान्निवर्तेत अतस्तत् दर्शयति-'पापात्'-हिसानतादि रूपात् कर्मण आत्मानं निवर्तयेत्, निदानोच्छेदेन हि निदानिन उच्छेवो भवतीत्यतोऽशेषकर्मक्षयमिच्छन्नादावेव आश्रवद्वाराणि निरन्ध्यात् । ४. वृत्ति, पत्र १९६ : आप्तो--मोक्षमार्गस्तद्गामी-तद्गमनशील आत्महितगामी वा आप्तो वा प्रक्षीणदोषः सर्वज्ञस्तदुपदिष्टमार्ग गामी। ५. चूणि, पृ० १९२ : (अत्तकामी) आत्मनिः यसकामी । ६. चूणि, पृ० १९२ : एवं निर्वाण समाधिर्भवति कसिण इति सम्पूर्णः, संसारिकानि हि यानि कानिचित् स्नान-पानादीनि निर्वाणानि तान्यसम्पूर्णत्वाद् नैकान्तिकानि नात्यन्तिकानि च । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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