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सूयगड १
७८. अगार-बंधन से मुक्त ( विमुक्के)
७६. लावा का कामी ( सिलोयकामी)
'
चूर्णि के अनुसार इसका अर्थ है- अगार-बंधन से मुक्त
वृत्तिकार ने इसका अर्थ- बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त किया है ।"
८०. अनासक्त हो ( णिरावकखी)
ज्ञान, तपस्या आदि के द्वारा यश पाने की कामना करने वाला श्लोककामी होता है ।" श्लोक २४ :
गृह, कलत्र, कामभोग आदि की आकांक्षा न करने वाला निरवकांक्षी होता है । *
जो जीवन के प्रति भी आकांक्षा नहीं करता वह निरवकांक्षी होता है । "
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८१. शरीर का व्युत्सर्ग कर (कार्य विओसज्ज )
चूर्णिकार ने शरीर के द्रव्य व्युत्सर्ग और भाव व्युत्सर्ग का उल्लेख किया है । वृत्तिकार के अनुसार काया को छोड़ने का अर्थ है - उसकी सार-संभाल न करना, उसमें रोग उत्पन्न हो जाने पर भी चिकित्सा आदि न कराना।"
प्रस्तुत सूप (२१२७) में ध्यान के प्रसंग में काय-क्रसर्ग का उल्लेख मिलता है यह कायोत्सर्ग का सूचक है शरीर की प्रवृत्ति और उसके प्रति होने वाला ममत्व - इन दोनों का त्याग करना काय - व्युत्सर्ग है ।
८२. कर्म-बन्धन (निदान)
आप्टे की डिक्शनरी में 'निदान' शब्द के अनेक अर्थ किए हैं- रस्सी, अवरोधक, मूल कारण, उपादान कारण आदि आदि ।" प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ 'मूल कारण' है । संसार भ्रमण का मूल कारण है 'कर्म बंधन' मुनि इस कर्म बंधन को छिन्न करे ।
चूर्णिकार ने निदान के दो प्रकार माने हैं'
१. द्रव्य निदान —– स्वजन, धन आदि ।
२. भाव निदान कर्म ।
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जैन परम्परा में 'निदान' शब्द का पारिभाषिक अर्थ है - आध्यात्मिक शक्तियों का भौतिक सुख-सुविधा की प्राप्ति के लिए विनिमय करना ।
देखें पहले श्लोक में 'अगिदाण भूते' का टिप्पण ।
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८३. भव के वलय से मुक्त ( वलया विमुक्के)
चूर्णिकार ने 'वलय' के तीन अर्थ किए हैं
अध्ययन १० टिप्पण ७८८३
० १२२ विके
'अगारमंधणविष्यमुक्के।
१.
२. वृति पत्र १७
तथा सबाह्याभ्यन्तरेण प्रत्ये
३. वृणि, पृ० १६२
: सिलोगो त्ति जसो, णाण-तवमादीहि सिलोगो ण कामेज्जा ।
४. पूर्ण पृ० १६२ अप्पं वा बहुं वा उपधि विहाय निष्कान्त मिलोसावीह गृह-कल कामभोगे निरावलो
५ वृत्ति, पत्र १९७ : जीवितेऽपि निराकाङ्क्षी ।
६. चूर्णि, पृ० १९२ : दव्वतो भावतो य कार्य विसेसेण उत्सृज्य विओसज्ज ।
७. वृत्ति, १७ कार्य' - शरीरं व्युत्सृज्य निध्यतिकर्मतया चिकित्सादिकमकुर्वन् ।
८. आप्टे, संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी ।
६. चूर्णि पृ० १९२ : दव्वणिवाणं सयण-धणादि, भावणिदाणं कम्मं ।
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