SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 567
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगडो १ अध्ययन १३:टिप्पण ११ करना और तदनुसार सम्यक् आचरण करना।' अथवा पारस्परिक वैयावृत्य करना, विनय करना।' वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप में गुणों के विषय में इस प्रकार प्रतिपादन किया है गुरु की सेवा-शुश्रुषा करने से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है, उससे सम्यक् प्रवृत्ति होती है और अन्त में समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है, मोक्ष प्राप्त हो जाता है । यहां छन्द की दृष्टि से 'बहू' में दीर्घ उकार का प्रयोग किया गया है। श्लोक ४: ११. (जे यावि पुट्टा पलिउंचयंति) कोई व्यक्ति ऐसे आचार्य से विद्या सीखता है जो जाति आदि से कुछ न्यून है। दूसरा व्यक्ति उससे पूछता है-अरे, तुमने यह विद्या किससे सीखी ?' वह आचार्य से अपने आपको जातिवान् मानता हुआ उस आचार्य का नाम नहीं बताता, उसको छुपा देता है और उसके स्थान पर किसी प्रख्यात आचार्य का नाम ले लेता है। वज्रस्वामी पदानुसारीलब्धि से सम्पन्न थे । वे अपने आचार्य से अधिक प्रज्ञापना करने में समर्थ थे। इसी प्रकार कोई शिष्य अपने आचार्य से अधिक ज्ञानी हो, फिर भी उसे अपने आचार्य के नाम को नहीं छिपाना चाहिए । जो व्यक्ति ज्ञान आदि की दृष्टि से आचार्य के समान हों, या उनसे न्यून हों, उनको तो वैसा करना ही नहीं चाहिए। उनको गुरु के विषय में पूछने पर वे उत्कर्ष के साथ कहते हैं-- मैंने ही इस सूत्र के अर्थ का विस्तार से वर्णन किया है। मैंने ही इस सूत्र और अर्थ पद का विशोधन किया है। ऐसा व्यक्ति अशांतिभाव में स्थित निन्हवक होता है । कोई व्यक्ति किसी के पास विद्या ग्रहण करता है। वह अपनी ग्रहणशक्ति की प्रबलता के कारण व्याकरण, छन्द-शास्त्र, न्यायशास्त्र का अधिक विद्वान् बन जाता है । अथवा गृहस्थावस्था में इन शास्त्रों का पारगामी होकर फिर प्रवजित होता है । तब कोई उसे पूछता है—'क्या तुमने यह सारा अमुक आचार्य के पास सीखा है ? वह कहता है-अरे ! वह बेचारा क्या जानता हैं ? वह तो मिट्टी का लोंदा है। उसके होठ भी ठीक नहीं हैं तो वह मुझे क्या वाचना दे पाएगा? (यह सब मैंने अपनी बुद्धि से ही जाना, सीखा है।) इस प्रकार वह आचार्य के प्रति किए जाने वाले अभ्युत्थान आदि विनयों से डर कर उनका नाम छिपाता है । यह ज्ञान और दर्शन की परिकुंचना है। इसी प्रकार चारित्र की भी परिकंचना होती है, जैसे- कोई शिथिलाचारी मुनि पृथ्वी आदि जीवों की हिंसा करता है। उस समय कल्प्य और अकल्प्य की विधि को जानने वाला कोई श्रावक उससे पूछता है-'महाराज !' क्या यह आपको कल्पता है ? क्या ऐसा करना आपके लिए विहित है ? सजीव जल से गीली वस्तु को ग्रहण करते हुए देखकर वह श्रावक मुनि से कहता है-अमुक मुनि इस प्रकार की गीली वस्तु नहीं लेते । आप इसे कैसे ले रहे हैं ? ऐसी कौनसी दरिद्रता आपके आ गई है? __इस प्रकार पूछने पर वह सचित्त-अचित्त विषयक परिकुंचना करते हुए कहता है-वह इस विषय में क्या जानता है? अथवा तुम भी इस विषय में क्या जानते हो ? मैं इतने वर्षों से संयम का पालन कर रहा हूं, व्रतों को पाल रहा हूं। मैं जानता हूं कि क्या लेना है, क्या नहीं लेना है ? इस प्रकार वह गोपन करता है। १. आवश्यक नियुक्ति, गाथा २२ : 'सुस्सूसति पडिपुच्छति, सुणेति गेण्हति य ईहए यादि । तत्तो अपोहए वा, धारेति करेति वा सम्मं ।' २. चूणि, पृ० २२० । ३. वृत्ति, पत्र २३८ । यदि वा गुरुशुश्रूषादिना सम्यग्ज्ञानावगमस्ततः सम्यगनुष्ठानमतः सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षः । ४. (क) चूणि, पृ० २२०, २२१ । (ख) वृत्ति, पत्र २३६ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only e & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy