________________
सूयगडो १
५३१
अध्ययन १३ : टिप्पग १२-१३ वृत्तिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार किया है
कोई शिष्य स्वयं प्रमादवश भूल करता है और उसका प्रायश्चित्त करते समय, गुरु के पूछने पर उसको इस दृष्टि से छिपाता है कि कहीं मेरी निन्दा न हो।' १२. (मायण्णिएहिति अणंतघातं)
यहां दो पदों में संधि की गई है-मायण्णिआ-एहिति । 'घात' शब्द के तीन अर्थ हैं-जन्म-मरण, विनाश, संसार । वे मायावी पुरुष दो दोषों से युक्त होते हैं- एक तो वे स्वयं असाधु होते हैं और दूसरे में वे अपने आपको साधु मानते हैं। जो व्यक्ति स्वयं पाप में प्रवृत्त होकर अपने आपको शुद्ध बताता है, वह दुगुना पाप करता है । यह अज्ञानी व्यक्ति की दूसरी अज्ञानता है।'
इस प्रकार जो व्यक्ति अपने शिक्षक-गुरु का अपलाप करते हैं, वे अपने अहं के कारण बोधि-लाभ से वंचित रहते हैं तथा अनन्त जन्म-मरण करते हैं।'
आचार के पांच प्रकार हैं-दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तप:-आचार और वीर्याचार । इनके अनेक प्रकार हैं। ज्ञानाचार के आठ भेद हैं-काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिन्हवन, व्यंजन, अर्थ और व्यंजन-अर्थ ।'
प्रस्तुत श्लोक में 'अनिन्हवन' का उल्लेख है । दशवकालिक सूत्र के चूर्णिकार अगस्त्यसिंह स्थविर ने इस प्रसंग में एक कथा प्रस्तुत की है। वह इस प्रकार है
एक नाई था । उसे एक विद्या प्राप्त थी। उस विद्या-बल से वह अपनी हजामत की पेटी को आकाश में अधर रख सकता था । एक परिव्राजक ने यह देखा । विद्या के प्रति उसका मन ललचा गया। उसने नाई की खूब सेवा की । उसका बार-बार सत्कार किया । नाई ने प्रसन्न होकर उस परिव्राजक को यह विद्या सिखाई।
एक बार परिव्राजक कहीं दूर देश में चला गया। वह विद्या-बल से अपने त्रिदंड को आकाश में अधर खड़ा कर देता। लोगों ने देखा, वे चमत्कृत हुए। उसकी खूब पूजा होने लगी। राजा ने यह चमत्कार सुना । उसने परिव्राजक को अपनी सभा में बुला भेजा। परिव्राजक से राजा ने पूछा-- 'आपका त्रिदंड आकाश में अधर टिक जाता है। क्या यह विद्या का चमत्कार है या तपस्या का ? परिव्राजक ने कहा- राजन् ! यह विद्या का चमत्कार है।' भगवन् ! आपने यह विद्या कहां से सीखी ? राजन् ! एक बार मैं हिमालय की यात्रा पर गया था। वहां मुझे एक महान् ऋषि के दर्शन हुए। उन्होंने कृपा कर मुझे यह विद्या दी। यह कहते ही वह त्रिदंड धडाम से भूमी पर आ गिरा।
इस प्रकार आचार्य या विद्या-गुरु, चाहे वह कोई भी क्यों न हो, उसका अपलाप नहीं करना चाहिए।'
श्लोक ५: १३. जो ग्राम्यजन की भांति अशिष्ट बोलता है (जगट्ठभासी)
चूर्णिकार ने इसके चार अर्थ किए हैं
१. संसार में बोली जाने वाली रूखी, कठोर और निष्ठुर भाषा बोलने वाला। १. वृत्ति, पत्र २३६ : यदि वा-सदपि प्रमावस्खलितमाचार्यादिनाऽऽलोचनादिके अवसरा पृष्टाः सन्तो मातृस्थानेनावर्णवादभयान्निह नुक्ते। २. चूणि, पृ० २२१ : जाइतब्व-मरितव्बाई घातं । ३. वृत्ति, पत्र २३६ : 'घात'--विनाशं संसारं वा। ४. वही, पत्र २३६ : दोषद्वयवुष्टत्वात्तेषाम्, एकं तावत्स्वयमसाधवो द्वितीयं साधुमानिनः, उक्त'च -
"पावं काऊण सयं, अप्पाणं सुद्धमेव वाहर।।
दुगुणं करेइ पावं, बीयं बालस्स मंदत्तं ॥ ५. वही, पृ० २३६ : तदेवमात्मोत्कर्ष दोषाद् बोधिलाभमप्युपहत्यानन्तसंसारभाजो भवन्त्यसुमन्त इति । ६. दशवकालिक नियुक्ति गाथा, १८१,१८४ । ७. बसवेआलिग.....", अगस्यसिंहस्थविर चूणि पृ० ५३ ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org