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सूयगडो १
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अध्ययन १३ : टिप्पण १४-१६ २. आचार्य, साधु या गृहस्थ को रूखे, कठोर या निष्ठुर वचन कहने वाला। ३. छेदो, भेदो, बांधो, मारो-कहने वाला। ४. लोक-सम्मत जातिवाद के आधार पर बोलने वाला, काने को काना कहने वाला ।'
वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है---जगत् में जो जैसे व्यवस्थित है, उसको वैसे ही कहता है, जैसे-ब्राह्मण को 'डोड', बनिये को 'किराट', शूद्र को आभीर, श्वपाक को चांडाल, काने को काना, लंगड़े को लंगड़ा, कुबड़े को कुबड़ा, कुष्ट वाले को कुष्टी और क्षयरोग से ग्रस्त को क्षयी कहता है । जो पुरुष जिस दोष से युक्त है उसे उसी दोष के माध्यम से कठोर वचन कहता है, वह जगदर्थभाषी होता है।
चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसके पाठान्तर के रूप में 'जयट्ठभासी' शब्द दिया है। इसका अर्थ है-जिस किसी प्रकार से असद् बात कहकर अपनी जय चाहने वाला ।' १४. जो उपशान्त कलह को उदीरणा करता है (विओसितं जे य उदीरएज्जा)
दो व्यक्ति परस्पर कलह करते हैं । कालान्तर में वे परस्पर क्षमायाचना कर उस कलह को शान्त कर देते हैं। किन्तु कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो समय-समय पर ऐसी बातें कह देते हैं, जिससे उपशान्त कलह पुनः भडक उठता है।' १५. (अद्दे व से पावकम्मो)
अध्व का अर्थ है- राजपथ' और दडपथ का अर्थ है--- पगडंडी। कोई व्यक्ति राजपथ के उद्देश्य से पगडंडी पर चल पड़ता है। आगे जाकर वह पगडंडी समाप्त हो जाती है । वह किंकर्तव्यविमूढ हो आगे चलता है । उसे अनेक विपदाओं का सामना करना पड़ता है। कभी वह गढ़े में गिर पड़ता है और कभी विष म कूप में जा पड़ता है। इसी प्रकार विषम मार्ग में चलते हुए उसे पत्थर, कांटे, अग्नि, सर्प और हिंस्र पशुओं का सामना करना पड़ता है। १६. कठिनाई में फंस जाता है (घासति)
इसका संस्कृत रूप है-ग्रस्यते । इसका अर्थ है- कठिनाई में फंसना । वह पुरुष शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित होता है। १. चणि, पृ० २२१ : जगतः अट्ठा जगतट्ठा जे जगति भाषन्ते, जगति जगति तावत् खर-फरस-णिठ्ठरा, ण संयतार्था इत्यर्थः । ते पुनराचार्यादीन् साधून गहिणो वा खर-फरस-गिट्ठराणि भणंति, कक्कसकसुगादीणि वा। अथवा जगदर्था छिन्द्धि मिन्द्धि बद्ध मारयत,
जातिवादं वा काण-कुटादिवादं वा फुडंभाणी वा।। २. वृत्ति, पत्र २३६ : जगत्यर्था जगदर्था ये यथा व्यवस्थिताः पदार्थास्तानाभाषितुं शीलमस्य-जगदर्थमाषी, तद्यथा-ब्राह्मणं डोडमिति ब्रयात्तथा वणिज किराटमिति, शूद्रभाभी रमिति, श्वपाकं चाण्डालमित्यादि; तथा काणं काणमिति, तथा खजं कुब्जं वडममित्यादि
तथा कुष्ठिनं क्षयिणमित्यावि, यो यस्य दोषस्तं तेन खरपरुषं ब्रूयात् यः स जगदर्थमाषी। ३. (क)णि पृ० २२१ : 'जयट्ठभासी'---पठ्यते च येन तेन प्रकारेणाऽऽत्मजयमिच्छति । (ख) पत्ति, पत्र२३६,२४० : यदि वा जयार्थभाषी यथवाऽऽत्मनो जयो भवति तथैवाविद्यमानमप्यर्थ भासते तच्छीलश्चयेन केनचित
प्रकारेणासवर्थभाषणेनाप्यात्मनो जयमिच्छतीत्यर्थः : ४. (क) चूणि, पृ० २२१ : विसेसेण ओसवितं, लिओसितं खामितमित्यर्थः, तं सपक्खं परपक्खं वा क्षापयित्वा पुनरुदीरयति । (ख) बत्ति, पत्र २४० : 'विओसियं' ति–विविधमवसितं ---पर्यवसितमुपशान्तं द्वन्द्व --- कलहं यः पुनरप्युदीरयेत्, एतदक्त भवति ।
कलहकारिभिमिथ्यादष्कृतादिना परस्परं क्षामितेऽपि तत्तद् ब्र याद्यन पुनरपि तेषां क्रोधोदयो भवति । ५. चूणि, पृ० २२१ : अखे..... महापध इत्यर्थः। ६ (क) चूणि, पृ० २२१ : दंडपध णाम एक्कपइय ।
(ख) वृत्ति, पत्र २४० : 'दण्डपथं'-गोदण्डमार्ग (लघुमार्ग)। ७ चूणि, पृ०२२१ । तं अध्वउद्देसतो गृहीत्वा गर्तायां घृष्ट विषमे कुपे वा पतति, पाषाण-कण्टका-ऽग्न्यहि-श्वापदेभ्यो वा दोष
मवाप्नोति। ८. (क) चूणि, पृ० २२१ : घासति सारीर-माणसेहि दुक्खेहि ति ।
(ख) वृत्ति, पत्र २४० : असौ पापकर्मा धृष्यते चतुर्गतिके संसारे यातनास्थानगतः पौनः पुग्येन पीड्यत इति ।
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