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________________ सूयगडा १ अध्ययन १३ : टिप्पण १७-१६ श्लोक ६: १७. ज्ञातभाषी (णायभासी) चूणिकार ने 'नायभासी' का संस्कृत रूप 'नात्याभाषी' किया है। किन्तु यह शब्द स्पष्ट अर्थ देने वाला नहीं है । इसके तीन अर्थ किए गए हैं १. अस्थानभाषी। २. गुरु पर आक्षेप करने वाला। ३. प्रतिकूलभाषी । वृत्तिकार ने 'अन्नायभासी' पाठ मानकर उसके दो अर्थ किए हैं-' १. अन्यायपूर्ण वाणी बोलने वाला। २. जो कुछ मन में आया, उसे बोलने वाला। हमने इसका अर्थ ज्ञातभाषी-जानी हुई हर बात को कहने वाला किया है। १८. कलह से परे (अझंझपत्ते) झंझा का अर्थ है-- 'कलह' । 'अझंझाप्राप्त' अर्थात् जो कलह को प्राप्त नहीं है। वृत्तिकार ने इसका एक अर्थ-- अमायाप्राप्त भी किया है। सातवें श्लोक में वृत्तिकार ने झंझा के दो अर्थ किए हैं क्रोध और माया। चूणिकार और वृत्तिकार ने विकल्प में इसे तृतीया विभक्ति के बहुवचन का रूप 'अझञ्झाप्राप्तः' मानकर इसका अर्थ-वह अकलहप्राप्त व्यक्तियों के समान नहीं होता, किन्तु गृहस्थों के समान होता है-किया है। १६. गुरु के निर्देश में चलने वाला (ओवायकारी) अवपात का अर्थ है-- आचार्य का निर्देश, जैसे-ऐसा करो, ऐसा मत करो, जाओ, आओ आदि को मानने वाला 'अवपातकारी, होता है । एक शब्द में इसका अर्थ है-आचार्यनिर्देशकारी।' वृत्तिकार ने 'उववायकारी' शब्द मानकर उसका संस्कृत रूप 'उपपातकारी' दिया है। इसका वही अर्थ है जो 'ओवायकारी' . वृत्तिकार ने पाठान्तर के रूप में 'उवायकारी' शब्द मानकर उसका अर्थ-शास्त्रोक्त विधि के अनुसार प्रवृत्ति करने वालाकिया है। चूर्णिकार ने वैकल्पिक रूप में 'उववाय' पाठ देकर उसका अर्थ सूत्रोपदेश किया है।" १. चूणि पृ० २२१ : नात्याभाषी अस्थानभाषी गुर्वधिक्षेपी प्रतिकलभाषी। २. वृत्ति, पत्र २४० : अन्याय्यां भाषितुं शीलमस्य सोऽन्याय्य माषी, यरिकनभाष्यस्थानभाषी गुर्वाद्यधिक्षेपकरो वा । ३. चूणि, पृ०२२१: झंझा णाम कलहः। ४. वत्ति, पत्र २४० : अझझां प्राप्तः-अकलहप्राप्तो वा भवस्यमायाप्राप्तो वा । ५. वृत्ति, पत्र २४०,२४१ : अझंझा-अक्रोधोऽमाया वा। ..(क) चूणि, पृ० २२१ : अथवा नासौ समो भवति असझाप्राप्तः, (झञ्झाप्राप्तः) तु गहिभिः समो भवति, तेत नवं विधेन माव्यं शिष्येण । (ख) वृत्ति, पत्र २४०। ७ चूणि, पृ० २२१ : ओवातो णाम आचार्यनिर्देशः, तद्धि एवं कुरु मा चैवं कुरु तथा गच्छ आगच्छति वा । ८ वृत्ति, पत्र २४० : उपपातकारी-आचार्गनिर्देशकारी-यथोपदेशं क्रियासु प्रवृत्तः। ६. वही, पत्र २४० : यदि वा उपायकारित्ति सूत्रोपदेशप्रवर्तकः । १०. चूणि, पृ० २२१ : अथवा सूत्रोपदेशः उववायः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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