________________
सूयगडो ।
अध्ययन १३ : टप्पण २०-२५ २०. लज्जालु (हिरीमणे)
ह्री, लज्जा और संयम-ये तीनों एकार्थक हैं । ह्रीमान् अर्थात् लज्जावान् या संयमवान् । वह संयमी व्यक्ति अनाचार का सेवन करते हुए आचार्य आदि गुरुजनों तथा लोक व्यवहार से लज्जा का अनुभव करता है।' २१. एकान्तदृष्टि वाला (एगंतदिट्ठी)
एकान्तदृष्टि का अर्थ है - एक अन्त वाली दृष्टि, वैसी दृष्टि जिसका एक ही अन्त हो-लक्ष्य हो । आगमों में यह साधु के विशेषण के रूप में बहु-प्रयुक्त शब्द है । स्थान-स्थान पर साधु को 'अहीव एगंतदिट्ठी' -सर्प की भांति एकांतदृष्टि वाला होना कहा है। सर्प जैसे अपने लक्ष्य पर ही दृष्टि रखता है उसी प्रकार मुनि को भी लक्ष्यवेध दृष्टि वाला होना चाहिए ।
चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-सम्यग्दृष्टि और असहायी।' वृत्तिकार ने जीव आदि पदार्थों के प्रति एक मात्र दृष्टि रखने वाले को एकान्तदृष्टि कहा है।'
देखें-५॥५१ का टिप्पण। २२. छद्म से मुक्त...होता (अमाइरूवे)
जो छद्म से मुक्त होकर धर्म और गुरु की सेवा करता है वह 'अमायिरूप' होता है।'
श्लोक ७: २३. पुरुषजात (पुरिसजाते)
यह सामान्य रूप से पुरुष प्रकारवाची शब्द है । स्थानांग सूत्र में इसका बहुलता से प्रयोग मिलता है।
वृत्तिकार ने इसका अर्थ-पुरुषार्थकारी किया है।' २४. प्रिय (पेसले)
इसके दो अर्थ हैं -मीठा बोलने वाला अथवा विनय आदि गुणों से प्रीति उत्पन्न करने वाला ।' २५. परिमित बोलता है (सुहमे)
चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-१. जो सूक्ष्म बोलता है अर्थात् अधिक नहीं बोलता, २. जो जोर-जोर से नहीं बोलता। वृत्तिकार ने इसका भिन्न अर्थ किया है । जो सूक्ष्म अर्थ को देखने वाला है या सूक्ष्म (थोड़ा) बोलने वाला है, वह सूक्ष्म है।'
१. (क) चूणि, पृ० २२१ : ह्री: लज्जा संयम इत्यनान्तरम्, ह्रीमान् संयमवानित्यर्थः । लज्जते च आचार्यादीनां अनाचारं कुर्वन
लोकतश्च । (ख) वृत्ति, पत्र २४० : ह्री:-लज्जा संयमो मूलोत्तरगुणभेदभिन्नस्तत्र मनो यस्यासौ होमनाः, यदि वा अनाचारं कुर्वन्ना
चार्यादिभ्यो लज्जते स एव मुच्यते। २ चूणिः पृ० २२१ : एगंतविट्ठी नाम सम्मद्दिठ्ठी असहायो। ३ वृत्ति, पत्र २४० : तथैकान्तेन तत्त्वेषु-जीवादिषु पदार्थेषु दृष्टिर्यस्यासावेकान्तदृष्टिः । ४ (क) चूणि, पृ० २२१ : अमायरूपी नाम न छद्मना धर्म गुर्वावीश्चोपचरति । (ख) वृत्ति, पत्र २४० : अमायिनो रूप यस्यासावमायिरूपोऽशेषच्छद्मरहित इत्यर्थः, न गुर्वादीन् छद्मनोपचरति नाप्यनेन केनचित्साधं
छद्मव्यवहारं विधत्त इति । ५. वृत्ति, पत्र २४० : ...... पुरुषार्थकारी।। ६. चूणि, पृ० २२२ : पेसलो नाम पेसलवाक्य , अयवा विनयादिभिः शिष्यगुणः प्रीतिमुत्पादयति पेशलः । ७ चूणि, पृ० २२२ : सुहुमो णाम सुहुमं भाषते अबहुं च अविष्टं च नोच्चैः । ८. वृत्ति, पत्र २४० : सूक्ष्म:--सूक्ष्मदशिल्वात् सूक्ष्मभाषि (वि) स्वाद्वा सूक्ष्मः ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org