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सूयगडो १
७. विशोधिका (धर्मकथा या सूत्रार्थ) का ( विसोहियं )
पूगिकार ने विशोधिका के दो अर्थ किए है
१. धर्मकथा ।
२. सूत्रार्थं ।
वृत्तिकार के अनुसार जो मार्ग विविध प्रकार से निर्दोष कर दिया गया है, शुद्ध कर दिया गया है, वह विशोधित (मार्ग) कहलाता है । तात्पर्य में इसका अर्थ है - मोक्ष मार्ग ।
८. अपना अर्थ बतलाता है (आतभावेण वियागरेज्जा)
भाव के दो अर्थ हैं - ज्ञान अथवा अभिप्राय । आत्मभाव का अर्थ है - स्वयं का ज्ञान अथवा स्वयं का अभिप्राय । जो पुरुष आत्मोत्कर्ष के कारण तथा अपनी व्याख्या के प्रति आसक्ति के कारण, आचार्य परंपरा से आए हुए अर्थ को गौण कर अपने अभिप्राय के अनुसार तथ्यों की व्याख्या करते हैं, विपरीत अर्थ बतलाते हैं वे गंभीर अभिप्राय वाले सूत्र और अर्थ को सही नहीं समझते । अपने कर्मों के उदय के प्रभाव से वे उसे यथार्थ रूप में परिणत नहीं कर पाते। वे पंडितमानी पुरुष उत्सूत्र की प्ररूपणा करने लग जाते हैं । वे गोष्ठामाहिल की तरह आचार्य की अनुपस्थिति में विपरीत कथन करते हैं 'यह ऐसा नहीं है। जैसा मैंने कहा है, वैसे ही है।' उन्हें जब कोई कुछ कहता है तब वे कहते हैं—जैसे तुम कहते हो, यह वैसे नहीं है। यह इस प्रकार होना चाहिए।' वह स्वच्छंद प्ररूपणा करने लग जाता है ।"
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वे जमालि की तरह शासन से पृथक् होकर कहते हैं
६. ज्ञान में शंकित हो ( णाणसंकाए )
इसके दो अर्थ हैं *---
१. ज्ञान में शंका या संदेह ।
२. अपने आपको ज्ञानी मानना ।
पहले अर्थ में 'शंका' का अर्थ है - संदेह और दूसरे में उसका अर्थ है- मानना ।
१०. बहुत गुणों का अस्थान बन जाता है (अट्टाणिए होइ बहुगुणाणं)
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श्लोक ३ :
इसका अर्थ है - वैसा पुरुष अनेक गुणों का अस्थान ( अपात्र ) बन जाता है। चूर्णिकार ने अनायतन, असंभव, अनाचार और अस्थान को एकार्थक माना है ।"
वृत्तिकार ने 'अस्थानिक' का अर्थ अनाधार, अभाजन किया है ।"
२. नि, पृ० २२०
यहां 'गुण' शब्द से निम्न गुणों का ग्रहण किया गया है— आचार्य के प्रति विनय, जिज्ञासा करना, आचार्य के कथन को सुनना, उसे ग्रहण करना, उसके विषय में तर्क-वितर्क करना, अर्थ का निश्चय करना, बार-बार प्रत्यावर्तन के द्वारा उसे आत्मसात् १. चूर्ण, पृ० २२० : विसोधिकरं विसोधियं, धम्मकधा सुत्तत्यो वा ।
२ वृत्ति पत्र २३८ : विविधम्- अनेकप्रकारं शोधितः कुमार्गप्ररूपणापनयनद्वारेण निर्दोषतां नीतो विशोधितः सम्यग्दर्शन -ज्ञानपरित्रायो मोक्षमार्गः ।
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समीपे गोण्डमा कथ्यमानमपि ब्रुवते
४. (क) पूर्णि, १०२२०
(ख) वृत्ति ५. चूर्ण, पृ० २२० ६. वृत्ति पत्र २३०
अध्ययन १३ : टिप्पण ७-१०
चानामा अभिप्राय वा उपपति, पौर्वापार स्वतः परिणमयितुं विलयं रूपयन्ति आचार्यनिम्ता या जातियत् एवं न युज्यते ययोदितमेव संयते' इत्येवं बात मावेन वियागति केचित् नैतदेवं युज्यते यथा भवानाह, स्यादेवं तु युज्यते । स एवं स्वच्छन्दः ।
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गाणे कामाका, तेसु तेसु पाणंतरेतु एवमेत पुयते सा संकेत मान्यार्याः ये ज्ञानयन्तमात्मानं
मन्यमानाः ।
जानेवार
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: अनायतनं असम्भवः अनाचार : अस्थानमित्यनर्थान्तरम् । 'अस्थानिक 'अनाधारो बहूनां ज्ञानादिगुणानामभाजनं भवतीति ।
"यदि वा ज्ञानशङ्कया पाण्डित्याभिमानेन ।
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