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सूयगडो १
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अध्ययन १३ : टिप्पण ३-६ ३. (सतो य धम्म............)
सत् पुरुष के साथ शील और शान्ति का तथा असत् पुरुष के साथ अशील और अशांति का संबंध जुड़ता है।
चूर्णिकार ने शील का अर्थ धर्म, समाधि और मार्ग किया है।' इस आधार पर अशील का अर्थ अधर्म, असमाधि और अमार्ग अपने आप हो जाता है । शांति का अर्थ है-अशुभ से निवृत्ति अथवा पूर्व संचित कर्म की निर्जरा। परम शान्ति को निर्वाण कहा जाता है। अशान्ति का अर्थ है-अशुभ में प्रवृत्ति और कर्म-बंध के हेतु ।
श्लोक २: ४. जागरूक तथागतों (तीर्थंकरों) से (समुट्टितेहिं तहागतेहि)
चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इन दोनों की व्याख्या भिन्न पद मान कर की है। मुनि संयमगुणों में स्थित व्यक्तियों से दोनों प्रकार की शिक्षा ग्रहण कर तथागत-तीर्थंकर से संसार-तरण का उपाय जाने ।'
वृत्तिकार ने 'समुट्टितेहिं' का अर्थ--ऐसे श्रुतधर मुनि जो सदनुष्ठान में तत्पर रहते हैं—किया है और तथागत का अर्थ तीर्थंकर किया है। ५. सेवन नहीं करते हुए (अजोसयंता)
__ 'जुषी प्रीतिसेवनयोः' धातु से इसका संस्कृत रूप 'अजोषयन्तः' होगा। इसके दो अर्थ हैं-प्रेम रखना और सेवन करना। यहां यह सेवन के अर्थ में प्रयुक्त है । इसका अर्थ है-सेवन नहीं करते हुए।
कुछ पुरुष समाधि को प्राप्त करके भी अपने कर्मोदय के कारण तथा ज्ञान के झूठे अहं के कारण उस पर श्रद्धा नहीं करते । कुछ श्रद्धा करते हुए भी अपने धृति-दौर्बल्य के कारण उसका यावज्जीवन पालन नहीं कर सकते।' ६. शास्ता के प्रति कठोर शब्दों का प्रयोग करते हैं (सत्यारमेवं फरसं वयंति)
शास्ता का अर्थ है-आचार्य ।'
जब व्यक्ति कहीं भूल कर बैठता है, तब उसके आचार्य, जिन्होंने निःस्वार्थ वत्सलता से उसे पाला-पोषा है, उसे कहते हैंतुम ऐसा मत करो। यह शास्ता के उपदेश के विपरीत है।' तब वह अपने उपदेष्टा को कहता है-'दूसरों को उपदेश देने में क्या लगता है ? दूसरों के हाथों से जलते अंगारों को निकलवाना सरल होता है।' इस प्रकार वह कठोर वचन कहता है।' १. चूणि, पृ० २१९ : धर्मो भवति यथार्थः, एवं समाधिमार्गश्च । २. चूणि, पृ० २१९ : सर्वाशुभनिवृत्तिः शांतिः, सर्वभूतशान्तिकरत्वात् सर्वाशुभनिवृत्ति: शांतिः, तथा च परमशांति: निर्वाणं भवति ।
अशांतिः अशीलः, आत्मनः परेषां च इह वा शान्तिभवत्यमुत्र च, तां कर्मनिर्जरणशांति ............ 'कर्मबन्धकारणं
चाशान्ति। ३. चूणि, पृ० २१६ : सम्यग् उत्थिताः समुत्थिताः, सम्यग्ग्रहणात् समुत्थितेभ्यः संयमगुणस्थितेभ्यश्च द्विविधां शिक्षा गृहीत्वा तीर्थकरा
दिभ्यः तथागतेभ्यः संसारनिस्सरणोपायस्तावत् प्रतिलभ्येत । ४. वृत्ति, पत्र २३८ । सम्यगुत्थिताः समुत्थिताः सदनुष्ठानवन्तस्तेभ्यः श्रुतधरेभ्यः, तथा 'तथागतेभ्यो'-वा तीर्थकृद्भ्यो। ५. चूणि, पृ० २२० : "जुषी प्रीति-सेवनयोः" तं अभूसयंता कम्मोदयदोसेणं केयि दुग्वियबुद्धी असद्दहंता, केचित् श्रद्दधतोऽपि धृति
दुर्बला: यावज्जीवमशक्नुवन्तो यथारोपितमनुपालयितुम् । ६. चूणि, पृ० २२० : यः शास्ति स शास्ता आचार्य एव । ७. वही, पृ० २२० : जेहिं चेव णिक्कारणवत्सलेहि पुत्रवत् सङ्ग्रहीताः ते चेव कहिचि चुक्क-क्खलिते चोदेमाणा अण्णतरं वा साधुं पति
चोवंति फरसं वदंति, 'मा एवं करेहि त्ति नैष शास्तारोपदेशः इति सत्थारमेव फरसं वंदति, सो हि न ज्ञातवान्, कि वा तस्स उवविसंतस्स पारक्कस्स छिज्जति ? सुहं परायएहि हत्थेहिं दंगालाकडिज्जति ।
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