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________________ १. यथार्थ का (आहतहियं ) इसका अर्थ है - यथार्थता, परमार्थ, सत्य । टिप्पण अध्ययन १३ पूर्णिकार ने शील, व्रत, इन्द्रिय-संबर समिति गुप्ति, कषाय निग्रह आदि को यथार्थ बतलाया है।' विकल्प में व्रत और समिति के ग्रहण और रक्षण तथा कषायों के निग्रह और त्याग को यथार्थ बतलाया है ।" वृत्तिकार ने तत्त्व और परमार्थ को याथातथ्य माना है ।" श्लोक १ : इस अध्ययन के तेवीसवें श्लोक में 'आहत्तहीयं' शब्द की व्याख्या में चूर्णिकार ने याथातथ्य से इसी सूत्र के चार अध्ययनों (ह से १२) - धर्म, समाधि, मार्ग और समवसरण का ग्रहण किया है। वृत्तिकार ने उस श्लोक में याथातथ्य से नौवें, दसवें और बारहवें अध्ययन (धर्म, मार्ग और समवसरण ) में वर्णित तत्त्व, सम्यक्त्व या चारित्र को ग्रहण किया है ।" २. पुरुष समूह नाना प्रकार का होता है (पाणपगारं पुरिसस्स जातं) पुरुष समूह नाना प्रकार का होता है। 'नाना प्रकार' का तात्पर्य है - अनेक अभिप्राय वाला, अनेक शील वाला । - अनेक पुरुष 'अनेक अभिप्राय वाले हों, भिन्न-भिन्न शील वाले हों, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, किन्तु एक ही पुरुष अनेक परिणामों में परिणत होता हुआ अनेक प्रकार का पुरुष हो जाता है, एक अनेक हो जाता है। वह कभी तीव्र परिणाम वाला, कभी मंद परिणाम वाला और कभी मध्यम परिणाम वाला हो जाता है । कभी वह मृदु और कभी कठोर हो जाता है। कभी अकार्य कर उससे निवृत्त हो जाता है तो कभी उसमें प्रवृत्त हो जाता है, सतत उसका आचरण करता है । किसी व्यक्ति को कोई कष्ट अत्यन्त दुःखदायी होता है और किसी को किसी दूसरे के कष्ट से दुःख होता है । दारुण और अदारुण स्वभाव से वह एक होते हुए भी अनेक हो जाता है ।" वृत्तिकार ने लिखा है कि पुरुष का स्वभाव विचित्र होता है। वह कभी प्रशस्त और कभी अप्रशस्त, कभी ऊंचा और कभी नीचा होता है।" Jain Education International १. २. वही, पृ० २१९ : अथवा व्रत समिति कषायाणां धारणारक्षणं विनिग्रहत्यागी । ३. वृत्ति, पत्र २३७ : यथातथाभावो याथातथ्यं तत्त्वं परमार्थः । ४. चूर्ण, पृ० २२६ : आधत्तधिज्जं धम्मं मग्गं समाधि समोसरणाणि य यथावदुवितानि । ०२१धतधियं याचातव्यम् शति-गुप्तिकवावनिग्रहसर्वधति यथातथम्। ५. वृत्ति, पत्र २४६ : यथातथाभावो यायातथ्यं धर्ममार्गसमवसरणाख्याध्ययनत्रयोक्तार्थतत्वं सूत्रानुगतं सम्यक्त्वं चारित्रं वा । ०२१९ नाना अर्थान्तरभावे, पुरिस (एस) जातमिति केचित् ६. विद्यासुन्दा, सत्पुरुषशीलगुणांश्चोपदेश्या ( क्ष्या) म:, समोसरणे तु अण्णउत्थिय गिहस्थाण वृष्टयो दर्शिताः इत्यतो जाणवणारं पुरिस ( स ) जातं, तिष्ठन्तु तावन्नानाप्रकारा गृहस्थाः, अन्यतीथिका पासत्यादयो संविग्गा य णाणापगारा पुरिसजाता, जाणाछन्दा इत्यर्थः । अथवा कि चित्रं यदि नानाविधाः पुरुषाः नानाशीला एव भवन्ति ?, एक एव हि पुरुषस्तानि तानि परिणामान्तराणि परिणामयन् णाणापगारो पुरिसज्जातो भवति तं कदाचित् तीयपरिणामः कदाचित्संदस्यमायः कदाचिन्मध्यमः कदाचिन्मृस्वभाव कदाचित्रिधर्म एव भवति, कृत्वा चात्यं करियते कश्चित् सुतरां प्रवर्तते, अन्यस्य चान्यः परीषो विषहो भवति अथवा (बाया-बायस्वभाववाच्च नानाप्रकारं पुरुषजातं भवति । ७. वृत्ति, पन २३८ । विश्चित्रं पुरुषस्य स्वभावम् — उच्चावचं प्रशस्ताप्रशस्त रूपम् । -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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