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________________ प्र० १३ : याथातथ्य : श्लोक १९-२३ सूयगडो १ १९.सयं समेच्चा अदुवा वि सोच्चा भासेज्ज धम्मं हितयं पयाणं । जे गरहिता सणिवाणप्पओगा ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा ॥ २०.केसिंचि तक्काए अबुज्झ भावं खुई पि गच्छेज्ज असद्दहाणे । आउस्स कालातियारं वघातं लद्धाणुमाणे य परेसु अलैं॥ तो आतभावं। २१.कम्मं च छंदं च विगिच धीरे विणएज्ज तु सव्वतो आतभावं । हवेहि लुप्पंति भयावहेहि विज्जं गहाय तसथावरेहि ॥ विनयत् भयावहेष, स्वयं समेत्य अथवापि श्रुत्वा, १६. स्वयं जानकर" या सुनकर प्रजा के भाषेत धर्म हितकं प्रजानाम् ।। लिए हितकर धर्म का प्रतिपादन करे । ये गहिताः सनिदानप्रयोगाः, धर्मकथी मुनि निदान के प्रयोग", जो न तान् सेवन्ते सुधीरधर्माणः॥ गहित हैं, का सेवन न करे। केषांचित् तर्केण अबुध्वा भावं, २०. अपनी तर्क-बुद्धि के द्वारा दूसरों के क्षौद्रमपि गच्छेद् अश्रद्दधानः । भावों को न जानकर (तत्व चर्चा आयुषः कालातिचारं व्याघातं, करने पर) अश्रद्धालु मनुष्य क्रोध को" लब्धानुमानश्च परेषु अर्थान् ॥ प्राप्त हो सकता है और वक्ता को मार सकता है" या कष्ट दे सकता है, इसलिए (धर्मकथा करने वाला मुनि) अनुमान के द्वारा दूसरों के भावों को जानकर" धर्म कहे। कर्म च छन्दं च विविच्य धीरः, २१. धीर पुरुष" श्रोता के कर्म और छंद विनयेत् तु सर्वतः आत्मभावम् । (रुचि) का विवेचन कर, (बाह्य रूपेषु लप्यन्ति भयावहेष, पदार्थों में होने वाले) उसके आत्मीय विद्यां गृहीत्वा त्रसस्थावरेषु ॥ भाव का सर्वथा विनयन करे। इस तत्त्व को जानकर कि भय पैदा करने वाले चल-अचल' रूपों (आकृतियों) में मूर्छित होकर मनुष्य नष्ट होते हैं । न पूजनं चैव श्लोकं कामयेत, २२. निर्मल" और उपशान्त भिक्षु पूजा प्रियमप्रियं कस्यचिद् नो कुर्यात् । और श्लाघा का कामी हो (धर्मकथा सर्वान् अनर्थान् परिवर्जयन्, न करे ।)" किसी का प्रिय या अप्रिय अनाविलश्च अकषायी भिक्षुः॥ न करे। (प्रियता या अप्रियता उत्पन्न करने के लिए धर्मकथा न करे।) सब अनर्थों का परिवर्जन करे। याथातथ्यं समपेक्षमाणः, २३. याथातथ्य को भली भांति-देखता हुआ सर्वेषु प्राणेषु निहाय दण्डम् । (भिक्षु) सब प्राणियों की हिंसा का" नो जीवितं नो मरणं अभिकांक्षेत, परित्याग करे। जो जीवन और मरण परिव्रजेद् वलयाद् विमुक्तः ॥ की अभिलाषा नहीं करता हुआ परिव्रजन करता है। वह वलय (संसार-चक्र) से" मुक्त हो जाता है। २२.ण पूयणं चेव सिलोय कामे पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा। सव्वे अणठे परिवज्जयते मणाइले या अकसाइ भिक्ख ॥ २३.आहत्तहीयं समुपेहमाणे सम्वेहि पाहि णिहाय दंडं। णो जीवियं णो मरणाहिकंखे परिव्वएज्जा वलया विमुक्के । -त्ति बेमि॥ -इति ब्रवीमि ।। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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