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________________ ५२५ प्र० १३ : याथातथ्य : श्लोक १२-१८ सूयगडो १ १२.णिक्किचणे भिवख सुलहजीवी जे गारवं होइ सिलोगगामी । आजीवमेयं तु अबुज्झमाणो पुणो-पुणो विपरियासुवेति ॥ निष्किञ्चनो भिक्षः सुरूक्षजीवी, यो गौरववान् भवति श्लोककामी। आजीवमेतं तु अबुध्यमानः, पुनः पुनः विपर्यासमुपैति ॥ १३.जे भासवं भिक्खु सुसाहुवादी पडिहाणवं होइ विसारए य । आगाढपण्णे सुय-भावियप्पा अण्णं जणं पण्णसा परिहवेज्जा॥ यो भाषावान् भिक्षुः सुसाधुवादी, प्रतिभानवान् भवति विशारदश्च । आगाढप्रज्ञः श्रुतभावितात्मा, अन्यं जनं प्रज्ञया परिभवेत् ॥ १४. एवं ण से होति समाहिपत्ते जे पण्णसा भिक्खु विउक्कसेज्जा। अहवा वि जे लाभमदावलित्ते अण्णं जणं खिसति बालपण्णे ॥ एवं न स भवति समाधिप्राप्तः, यः प्रज्ञया भिक्षुः व्युत्कर्षयेत् । अथवापि यो लाभमदावलिप्तः, अन्यं जनं निन्दति बालप्रज्ञः ॥ १२. जो अकिंचन", भिक्षा करने वाला और रूक्षजीवी" होकर भी (जाति आदि का) गर्व करता है", (उसका प्रकाशन कर) प्रशंसा चाहता है - यह आजीविका है", इस बात को नहीं जानता हुआ वह बार-बार विपर्यास (जन्म-मरण) को प्राप्त होता है । ५२ १३. जो भिक्षु सुसंस्कृतभाषी", वाक्पटु", प्रतिभा-संपन्न", विशारद, प्रखर प्रज्ञावान्" और श्रुत से भावितात्मा है वह दूसरे लोगों को अपनी प्रज्ञा से पराजित कर देता है। १४. ऐसा होने पर भी वह समाधि को प्राप्त नहीं होता। जो भिक्षु अपनी प्रज्ञा का उत्कर्ष दिखलाता है अथवा जो लाभ के मद से मत्त होकर दूसरे लोगों की अवहेलना करता है, वह बालप्रज्ञ (बचकानी बुद्धि वाला) है। १५. जो भिक्षु प्रज्ञामद, तपोमद, गोत्रमद" और चौथे आजीविका-मद को निरस्त कर देता है वह पंडित है और उत्तम आत्मा " है। १६. धीर और चारित्र-संपन्न मुनि जिन मदों को छोड़कर प्रव्रजित हुए हैं, फिर उनका सेवन न करें।" वे सारे गोत्रों से मुक्त महर्षि ही उस उच्च गति को प्राप्त होते हैं जहां कोई गोत्र नहीं १५. पण्णामदं चेव तवोमदं च णिण्णामए गोयमदं च भिक्खू । आजीवगं चेव चउत्थमाहु से पंडिए उत्तमपोग्गले से ॥ १६. एयाई मदाई विगिच धोरा ताणि सेवंति सुधीरधम्मा । ते सव्वगोतावगता महेसी उच्च अगोतं च गतिं वयंति ॥ प्रज्ञामदं चैव तपोमदं च, निर्नामयेद् गोत्रमदं च भिक्षः । आजीवकं चैव चतुर्थमाहुः, सः पंडितः उत्तमपुद्गलः सः ॥ एतान् मदान् विविच्य धीराः, नेतान् सेवन्ते सुधीरधर्माणः । ते सर्वगोत्रापगताः महर्षयः, उच्चां अगोत्रां च गतिं व्रजन्ति ॥ १७. भिक्खू मुतच्चे तह दिट्टधम्मे गाम व गगरं व अणुप्पविस्सा। से एसणं जाणमणेसणं च जो अण्णपाणे य अणाणुगिद्धे ॥ भिक्षमतार्चः तथा दृष्टधर्मा, ग्रामं वा नगरं वा अनुप्रविश्य । स एषणां जानन् अनेषणां च, यः अन्नपाने च अननगृद्धः ।। १८. अति रति च अभिभूय भिक्खू बहुजणे वा तह एगचारी । एगंतमोणेण वियागरेज्जा एगस्स तंतो गतिरागती य॥ अरति रति च अभिभूय भिक्षः, बहुजनो वा तथा एकचारी। एकान्तमौनेन व्यागृणीयात, एकस्य जन्तोः गतिरागतिश्च ॥ १७. भिक्षु मृत शरीर वाला" तथा धर्म को प्रत्यक्ष करने वाला" होता है, इसलिए बह ग्राम या नगर में प्रवेश कर एषणा और अनेषणा को जानता है तथा अन्न-पान के प्रति अनासक्त होता है। १८. अरति और रति को" अभिभूत करने वाला भिक्षु संघवासी हो" या एकचारी* (अकेला विचरण करने वाला), एकांत मौन (संयम) के साथ किसी तत्त्व का निरूपण करे",-जीव अकेला जाता है और अकेला आता है । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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