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________________ सूपको १ ६. जे विग्गहिए अ गायभासी ण से समे होइ अभवत् । ओवायकारी व हिरीमणे व एतबिट्ठी य अमाइरूवे ॥ ७. से पेसले सुहमे पुरिसजाते जगणिते चैव सुनुवारे । बहु पि अणुसासिए जे तहच्ची समे हु से होइ जपते ॥ ८. जे वावि अप्पं तुमं ति मंता संखाय वायं अपरिच्छ कुज्जा । तवेण वाहं अहिए ति मंता अगं जणं परसति विबभूतं ॥ १. एगंतकूण तु से पलेइ ण विज्जई मोणपदंसि गोते । जे माणणट्ठेण विउक्कसेज्जा वसुमण्णतरेण अबुझमाणे ॥ १०. जे माहणे खत्तिए जाइए वा तहूग्यपुले तह लेच्छवी वा । पव्वइए परदत्तभोई गोतेण जे धम्मति माणबद्धं ॥ ११. ण तस्स जाती व फुलं व ताणं गणत्थ विज्जाचरणं सुचिणं । णिक्खम्म से सेवइsगारिकम्मं ण से पारए होति विमोयणाए ॥ Jain Education International ५२४ यो वैग्रहिकश्च नसः समो भवति अवपातकारी च एकान्तदृष्टिश्च शातभाषी, अाप्राप्तः । ह्रीमनाश्च अमायिरूपः ॥ स पेशलः सूक्ष्मः पुरुषजात, जात्यान्वितश्चैव सु- ऋजुचारः । बहु अपि अनुशासितः वस्तवाचिः समः खलु स भवति अप्राप्तः ॥ यश्चापि आत्मानं वसुमान् इति मत्वा, संख्याकः वादं अपरोक्ष्य कुर्यात् । तपसा या अहं अधिकः इति मत्वा, अन्यं जनं पश्यति विम्बभूतम् ॥ एकान्तकुटेन तु स पर्येति, न विद्यते मौनपदे मौनपदे गोत्रम् । माननार्थेन व्युत्कर्धयेत् वसु-अन्यतरेण यः अबुध्यमानः ॥ यो ब्राह्मणः क्षत्रियः जात्या वा, तथोग्रपुत्रः तथा लिच्छविर्वा । यः प्रव्रजित: परदत्तभोजी, गोत्रेण य स्तभ्नाति मानबद्धः ॥ न तस्य जातिर्वा कुलं वा त्राणं, नान्यत्र विद्याचरणात् सुचीर्णात् । निष्क्रम्य स सेवते अगारिकर्म, नख पारको भवति विमोचनाय || For Private & Personal Use Only ० १३ : याथातथ्य : श्लोक ६-११ ६. जो झगड़ालू और ज्ञातभाषी" (जानी हुई हर बात को कहने वाला है, वह सम (मध्यस्थ), कलह से परे, गुरु के निर्देश में चलने वाला" तालु", ( संयम में) एकान्तदृष्टि वाला" और छद्म से मुक्त नहीं होता। ७. जो पुरुषजात" प्रिय" और परिमित बोलता है जातिमान् है ऋ 7 रण करता है", गुरु के द्वारा बहुत अनुशासित होने पर भी शांतचित्त रहता है", यह सम (मध्यस्थ ) और कलह से परे होता है।" ८. जो अपने आपको संयमी और ज्ञान 1 ८.३० मानकर परीक्षा किए बिना आत्मोत्कर्ष दिलाता है" में सबसे बड़ा तपस्वी हूं - ऐसा मानकर दूसरे लोगों को प्रतिबिम्ब (केवल मनुष्य - आकृति ) जैसा देखता हूँ" ६. वह एकान्त माया के द्वारा " संसार में भ्रमण करता है । * मुनि-पद में " गोत्र" (वाभिमान नहीं होता। जो सम्मान के लिए संयम अथवा अन्य किसी प्रकार से उत्कर्ष दिखाता है वह परमार्थ को नहीं जानता ।" १०. जो जाति से ब्राह्मण, क्षत्रिय, उग्रपुत्र और लिच्छवी" हो, किन्तु जो प्रव्रजित होने पर दूसरे का दिया हुआ खाता है, फिर भी जो मान के वशीभूत होकर गोत्र का मद करता है? ११. जाति और कुल" उसे त्राण नहीं दे सकते केवल आचरित विद्या और आचरण" ही त्राण दे सकते हैं। जो घर से निष्क्रमण कर गृहस्थ - कर्म ( जाति और कुल के मद) का सेवन करता है, वह विमुक्ति के लिए समर्थ नहीं छोटा www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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