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________________ तेरसमं अज्झयणं : तेरहवां अध्ययन पाहत्तहीयं : याथातथ्य संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. आहत्तहोयं तु पवेयइस्सं णाणप्पगारं पुरिसस्स जातं । सतो य धम्म असतो य सोलं संति असंति करिस्सामि पाउं॥ याथातथ्यं तु प्रवेदयिष्यामि, नाना प्रकारं पुरुषस्य जातम् । सतश्च धर्म असतश्चाऽशील, शान्ति अशान्ति करिष्यामि प्रादुः ॥ १. मैं यथार्थ का निरूपण करूंगा । पुरुष समूह नाना प्रकार का होता है। मैं साधु के धर्म, असाधु के अधर्म तथा साधु की शांति और असाध की अशांति को प्रगट करूंगा। २. दिन-रात जागरूक तथागतों (तीर्थ करों) से' धर्म को प्राप्त कर, उनके द्वारा आख्यात समाधि का सेवन नहीं करते हुए वे (अविनीत शिष्य) शास्ता के प्रति कठोर शब्दों का प्रयोग करते २. अहो य रातो य समुट्टितेहि तहागतेहि पडिलब्भ धम्म। समाहिमाघातमजोसयंता सत्यारमेवं फरसं वयंति ॥ अहश्च रात्रौ च समत्थितेभ्यः, तथागतेभ्यः प्रतिलभ्य धर्मम् । समाधिमाख्यातमजोषयन्तः, शास्तारमेवं परुष वदन्ति ।। ३. विसोहियं ते अणु काहयंते जे याऽऽतभावेण वियागरेज्जा। अट्टाणिए होइ बहुगुणाणं जे गाणसंकाए मुसं वदेज्जा ॥ विशोधिका तान् अनुकथयतः, यश्चात्मभावेन व्यागणीयात् । अस्थानिको भवति बहुगणानां, यो ज्ञानशंकया मृषा वदेत् ॥ ४.जे यावि पुट्ठा पलिउंचयंति आदाणमझें खलु वंचयंति । असाहुणो ते इह साहुमाणी मायण्णिएहिति अणंतघातं ॥ ये चापि पृष्टाः परिकुञ्चयन्ति, आदानमर्थ खल वञ्चयन्ति । असाधवस्ते इह साधुमानिनः, मायान्विताः एष्यन्ति अनन्तघातम् ।। ३. जो विशोधिका (धर्मकथा या सूत्रार्थ) का' परंपरागत निरूपण करने वाले आचार्य के अर्थ को उलट कर अपना अर्थ बतलाता है, जो ज्ञान में शंकित हो' असत्य बोलता है, वह बहुत गुणों का अस्थान बन जाता है।" ४. जो पूछने पर (अपने गुरु का) नाम छिपाते हैं", वे आदानीय अर्थ (ज्ञान आदि) से अपने आपको वंचित करते हैं । वे असाधु होते हुए अपने आपको साधु मानने वाले छलनापूर्वक व्यवहार कर अनन्त बार जन्म-मरण को प्राप्त होते हैं।" ५.जे कोहणे होइ जगभासी विओसितं जे य उदीरएज्जा । अद्धे व से दंडपहं गहाय अविओसिते घासति पावकम्मी॥ यः क्रोधनो भवति जगदर्थभाषी, व्यवसितं यश्च उदीरयेत् । अध्वनि इव स दंडपथं गृहीत्वा, अव्यवसितो ग्रस्यते पापकर्मा । ५. जो क्रोधी होता है, जो ग्राम्यजन की भांति अशिष्ट बोलता है", जो उपशांत कलह की उदीरणा करता है", वह अनुपशान्त कलह वाला पापकर्मा मनुष्य राजपथ के स्थान पर पगडंडी लेकर (चलने वाले पुरुष की भांति) कठिनाई में फंस जाता है। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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