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सूयगतो.
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अध्ययन १३ : प्रामुख अतीन्द्रियज्ञान से संपन्न धर्मकथी के लिए कोई निर्देश आवश्यक नहीं होता । जो परोक्षज्ञानी है, आगम और श्रुत के आधार पर धर्म-प्रवचन करते हैं, उनके लिए निर्देश आवश्यक होते हैं । वे ये हैं
१. धर्मकथी पूछे जाने पर या बिना पूछे भी संयमपूर्वक बोले। वह धर्म संबंधी ऐसी बात कहे जो संयम को पुष्ट करने
वाली हो। २. धर्मकथी मुनि हिंसा और परिग्रह को बढ़ावा देने वाली, कुतीथिकों की प्रशंसा करने वाली या सावद्यदान की प्रतिष्ठापना
करने वाली भाषा न बोले । ३. वह ऐसे तर्कों का प्रयोग न करे, जिससे अश्रद्धालु व्यक्ति कुपित होकर अनर्थ घटित कर सकता है, मार सकता है। ४. धर्मकथी मुनि अनुमान के द्वारा दूसरे के भावों को जानकर धर्म-देशना करे । वह यह जान ले कि यह मनुष्य कौन है ? किस दर्शन को मानने वाला है ? मैं जो कह रहा है, वह परिषद् को प्रिय लग रहा है या अप्रिय ? जब उसे लगे कि अप्रिय लग
रहा है तो तत्काल विषय को मोड़ दे। ५. धर्म-प्रवचन करते समय मत-मतान्तरों की बात छोड़कर ऐसी बात कहे जिससे स्वयं का और सुनने वालों का कल्याण हो,
इहलोक और परलोक सुधरे। ६. धर्मकथी मुनि परिषद् की रुचि को ध्यान में रखे । जो परिषद् जिससे प्रभावित होती हो, वैसी धर्मदेशना दे । ७. धर्मकथी मुनि अक्षोभ्य और अनुत्तेजित रहे । ८. धर्मकथी मुनि पूजा और श्लाघा प्राप्त करने के लिए धर्मकथा न करे। वह यह कामना न करे कि धर्मकथा करने से मुझे
अच्छे वस्त्र, पात्र, अन्न, पान, लयन, शयन प्राप्त होंगे । वह यह भी न सोचे कि लोग मेरी प्रशंसा करेंगे। लोग कहेंगे-अरे! हमने इस जैसे अर्थ का विस्तार करने वाला नहीं देखा । अरे, यह बहुत मिष्टभाषी है । ६. वह प्रियता या अप्रियता पैदा करने के लिए धर्मकथा न करे । वह श्रोता के अभिप्राय को जानकर, रागद्वेष से रहित होकर,
सम्यग् दर्शन आदि यथार्थ धर्म का उपदेश करे । १०. धर्मकथी मुनि क्षुधा आदि परीसहों को सहने में धीर और पवित्र रहे। ११. धर्मकथी मुनि निष्प्रयोजन - केवल निर्जरा के लिए धर्मकथा करे। १२. धर्मकथी मुनि अकषायी रहे-न क्रोध करे, न अहंकार करे, न माया करे और न लोभ के वशीभूत हो।
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