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प्र०४: स्त्रीपरिज्ञा: लो०५१-५३
सूयगडो १ ५१. एवं भयं ण सेयाए इइ से अप्पगं णिरु भित्ता। णो इत्थि णो पसु भिक्खू णो सयं पाणिणा णिलिज्जेज्जा।२०
एवं भयं न श्रेयसे, इति स आत्मकं निरुध्य ।
तानो पशं भिक्षः,
५१. ये कामभोग भय उत्पन्न करते हैं।
ये कल्याणकारी नहीं हैं । यह जानकर भिक्षु मन का निरोध करे-कामभोग से अपने को बचाए।" वह स्त्रियों और पशुओं से बचे तथा अपने गुप्तांगों को हाथ से न छुए।५
भिक्षु मन का ।
नो स्वयं पाणिना निलीयेत ॥
५२. सुविसुद्धलेसे मेहावी
परकिरियं च वज्जए णाणी। मणसा वयसा काएणं सव्वफाससहे अणगारे ।२१॥
सुविशुद्धलेश्यः मेधावी, परक्रियां च वर्जयेत् ज्ञानी। मनसा वाचा कायेन, सर्वस्पर्शसहः अनगारः॥
५३. इच्चेवमाह से वीरे
धुयरए धुयमोहे से भिक्खू । तम्हा अज्झत्थविसुद्धे सुविमुक्के आमोक्खाए
परिव्वएज्जासि ।२२॥
इत्येवं आह स वीरः, धुतरजाः धुतमोहः स भिक्षुः । तस्मात् अध्यात्मविशुद्धः, सुविमुक्तः आमोक्षाय परिव्रजेत् ।।
५२. शुद्ध अन्तःकरण वाला मेधावी,
ज्ञानी भिक्षु परक्रिया न करे-स्त्री के पैर आदि न दबाए। वह अनिकेत भिक्षु मन, वचन और काया से सब
स्पों (कष्टों) को सहन करे। ५३. भगवान महावीर ने ऐसा कहा है
जो राग और मोह को धुन डालता है वह भिक्षु होता है । इसलिए वह शुद्ध अन्तःकरण वाला" भिक्षु काम-वांछा से मुक्त होकर बन्धन-मुक्ति के लिए परिव्रजन करे।
--त्ति बेमि ॥
-इति ब्रवीमि॥
-ऐसा मैं कहता हूं।
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