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सूयगडो १
४४. बंदाल
च करगं च
यच्चघरगं च आउसो ! खणाहि । सरपायच जायाए
गोरगं च सामणेराए |१३|
४५. पहि चेलगोल
कुमारभूषाए । इममभिआवणं
वासं
आवसहं जाणाहि भत्ता ||१४|
४६. आसंदियं च वसुतं
पाउल्लाई
सह डिडिए
संकट्ठाए । पुतदोहलट्ठाए
अदु
आणप्पा हवंति दासा वा ॥१५॥
४७. जाए फले समुपणे गेहसु वा णं अहवा जहाहि । अह पुत्तपोसिणो एगे भारवहा हवंति उट्टा वा । १६।
४८. राओ विउट्टिया संता
दारणं संठवेति घाई वा । सुहिरीमणा वि ते संता वत्थधुवा हवंति हंसा वा ॥ १७॥
४६. एवं
बहुि कयपुर भोगत्याए जेऽभियाणा। दासे मिए व पेस्से वा पसुभूए व से ण वा केई |१८|
५०. एवं खु तासु विष्णप्यं संभवं संवासं च चएज्जा । तज्जातिया इमे कामा वज्जकरा य एव मवखाया |१६|
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'बंदालगं' च करकं च, वचगृहं च आयुष्मन् ! खन । शरपातकं च जाताय, गोरधर्क च श्रामणेराय ||
घटिकां चेलगोलं
डिण्डिमवेन,
कुमारभूताय ।
अभ्यापन्ना,
वर्षा इय आवसथं जानीहि भर्तः ! ॥
अ० ४ : स्त्रीपरिज्ञा श्लो० ४४-५०
:
सह
आसन्दिकां च नवसूत्रां 'पाउल्लाई' संक्रमार्थम् । पुत्र दोहदार्थ,
अथ
आज्ञाप्याः भवन्ति दासा इव ॥
समुत्पन्ने, हि ।
जाते फले गृहाण वा अथवा अथ पुत्रपोषिणः एके, भारवहा भवन्ति उष्ट्रा इव ॥
रात्रापि उत्थिताः सन्तः, दारकं संस्थापयन्ति धात्री इव । सुह्रीमनसोऽपि सन्तः, वस्त्रधाविनो भवन्ति हंसा इव ॥
एवं बहुभिः कृतपूर्वं भोगार्थाय ये अभ्यापन्नाः । दासः मृग इव प्रेष्य इव, पशुभूत इव सन वा कश्चित् ।।
एवं खलु तासु विज्ञाप्यं, संस्तवं संवास च त्यजेत् । तज्जातिका इमे कामाः, वयंकराश्च एवं आख्याताः ॥
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!
४४. आयुष्मान् पूजाया और लघु पात्र" ला । संडास के लिए गढा खोद दे । " पुत्र के लिए धनुष्य"" और श्रामणेर ( श्रमण-पुत्र) के लिए" तीन वर्ष का बैल "" ले आ ।
डमरू
और कपड़े की गेंद "" ला । हे भर्त्ता ! वर्षा सिर पर मंडरा रही है, इसलिए घर की ठीक व्यवस्था कर 15
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४५. बच्चे के लिए १५ घंटा, "
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४६. नी की खटिया और चलने के लिए काष्ठपादुका ता तथा गर्भकाल में स्त्रियां अपने दोहद (लालसा) को पूर्ति के लिए अपने प्रियतम पर दास की भांति शासन करती हैं।
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४७. पुत्र रूपी फल के उत्पन्न होने पर ( वह कहती है) इसे (पुष को) से अथवा छोड़ दे।" (स्त्री के अधीन होने वाले कुछ पुरुष पुत्र के पोषण में लग जाते हैं और वे ऊंट की भांति भारवाही हो जाते है।
४८. वे रात में भी उठकर ( रोते हुए)
बच्चे को धाई की भांति लोरी गाकर सुला देते हैं । ११५ वे लाजयुक्त मन वाले होते हुए भी धोबी की भांति (स्त्री और बच्चे के ) वस्त्रों को धोते हैं ।
४९. बहुतों ने पहले ऐसा किया है। जो कामभोग के लिए भ्रष्ट हुए हैं वे दास की भांति समर्पित, मृग की भांति परवश, प्रेष्य की भांति कार्य में व्यापृत और पशु की भांति भारवाही" होते हैं । वे अपने आप में कुछ भी नहीं रहते । १९
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५०. इस प्रकार स्त्रियों के विषय में जो
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कहा गया है ( उन दोनों को जानकर ) उनके साथ परिचय" और संवास का परित्याग करे। ये काम - भोग सेवन करने से बढ़ते हैं ।" तीर्थंकरों ने उन्हें कर्म-बन्धन कारक " बतलाया है
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