SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १. पूर्व संयोग को ( पुण्यसंजोगं) पूर्णिकार ने इसके अर्थ निम्न प्रकार से किए है १. गृहसंयोग २. भार्या, श्वसुर, पुत्र, धेवते आदि से होने वाला पश्चात् संबंध । ३. सारे संबंध - पहले के या बाद के । ४. द्रव्य से पूर्व संयोग-स्वजन संस्तव या नो-स्वजन संस्तव । ५. भाव से पूर्व संयोग - मिथ्यात्व, अविरति, अज्ञान आदि । देता है।' ३. आत्मस्थ (सहिए ) वृत्तिकार ने माता, पिता, भाई, पुत्र आदि के संबंध को पूर्व संयोग और सास-ससुर आदि के संबंध को पश्चात् संयोग माना है। यहां दोनों प्रकार के संयोग गृहीत हैं ।' २. अकेला ( एगे ) इसका अर्थ है - अकेला । अकेला वह होता है जो माता-पिता आदि स्वजनों की आसक्ति को अथवा कषायों को छोड़ देखें - २१५२ का टिप्पण | ४. एकान्त में विचरूंगा (विवित्तेसी) टिप्पण : अध्ययन ४ पुर्णिकार ने इसके भार अर्थ किए हैं' श्लोक १ १. द्रव्य से विविक्त का अर्थ है - शून्यागार-स्त्री पशु से वर्जित स्थान । २. भाव से विविक्त का अर्थ है- काम के संकल्प का वर्जन । ३. साधुओं के मार्ग की एषणा करने वाला । ४. कर्म से विविक्त अर्थात् मोक्ष की एषणा करने वाला | वृत्तिकार ने इसका अर्थ - ऐसा स्थान जो संयमचर्या का अवरोधक न हो- किया है ।" *****... १. चूर्ण, पृ० १०३ : पूर्व संयोगो गृहसंयोगः, अथवा जातः सन् यैः सह पश्चात् संयुज्यते स संयोगः, स तु भार्या - श्वशुर-पुत्र - दुहित्रादि, अथवा सर्व एव पूर्वापरसहसम्बन्धः पूर्वसंयोगो भवति । अथवा द्रव्य-भावतः पूर्वसंयोगः । द्रव्ये स्वजनसंस्तवो नोस्वजन संस्तवश्च । भावे मिच्छत्ता ऽविरति अण्णाणादि । Jain Education International २. वृत्ति पत्र १०५ : भ्रातृपुत्रादिकं पूर्वसंयोगं तथा श्वश्रूश्वशुरादिकपश्चात्संयोगं च । ३. वृत्ति, पत्र १०५ एको मातापित्राद्यभिष्वङ्गवजितः कषायरहितो वा । ४. णि १० १०३ विविसी, विवित्तं प्रथ्ये शून्यागारं स्त्री-पशुवजितम् भाये तत्सत्ययता दिवितान्येयसीति विविशेयो मार्गयतीत्यर्थः, विविक्तानां साधूनां नार्गमेषतीति विवित्तंसी । अथवा कर्म विवित्तो मोक्खो तमेवमेषतीति विवित्तमेसी । ५. वृति पत्र १०५ विषतं स्त्रीपण्डकादिरहितं स्थानंसंधानुपरोऽयेषितुं शीलमस्तथेति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy