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________________ सूयगडो १ ३६ वृतिकार ने भी सुल बादि के नियतिकृत और अनितिकृत दोनों प्रकार बतलाए हैं। - चूर्णिकार ने 'संत' का अर्थ 'सभून' (यथार्थ) और वृत्तिकार ने इसका अर्थ- 'इतना होने पर भी' – किया है ।" श्लोक ३२ : ६४. पार्श्वस्थ (नियति का एकांगो आग्रह रखने वाले नियतिवादी) (पासत्वा) 'पासत्य' जैन आगमों का प्रचलित शब्द है। इसके संस्कृत रूप दो बनते हैं- पार्श्वस्थ और पाशस्थ । इन दोनों के आधार पर इसकी व्याख्या की गई है। जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र के पार्श्व - तट पर ठहरता है, वह पार्श्वस्थ होता है । मिथ्यात्व आदि के पास से जो बद्ध होता है, वह पाशस्य महलाता है।' हिन्दु 'पास' का मूलस्पर्शी संस्कृत रूप केवल पार्श्वस्व हो होना चाहिए। पाशस्थ कोरा बौद्धिक है, मूलस्पर्शी नहीं । पार्श्वस्थ का जो अर्थ किया गया है वह भी मौलिक नहीं लगता। इसका मूलस्पर्शी अर्थ होना चाहिए भगवान् पा की परम्परा में स्थित भगवान् पार्श्व भगवान् महावीर से २५० वर्ष पूर्ववर्ती हैं। भगवान् पार्श्व के अनेक शिष्य भगवान् महावीर के तीर्थ में प्रव्रजित हो गए । अनेक साधु प्रव्रजित नहीं भी हुए। हमारा अनुमान है कि भगवान् पार्श्व के जो शिष्य भगवान् महावीर के शासन में सम्मिलित नहीं हुए, उन्हीं के लिए 'पासत्व' [पार्श्वस्व ] शब्द प्रयुक्त हुआ है। यह स्पष्ट है कि भगवान् महावीर के आचार की अपेक्षा भगवान् पार्श्व का आचार मृदु था। जब तक भगवान् महावीर या सुधर्मा आदि शक्तिशाली आचार्य थे तब तक दोनों परम्पराओं में सामंजस्य बना रहा । किन्तु समय के प्रवाह में जब सामंजस्य स्थापित करने वाले शक्तिशाली आचार्य नहीं रहे तब पार्श्वनाथ के शिष्यों के प्रति महावीर के शिष्यों में हीन भावना इतनी बढ़ी कि पार्श्वस्थ शब्द शिथिल आचारी के अर्थ में रूढ हो गया । पार्श्वस्थ दो प्रकार के हैं- १. सर्वतः पार्श्वस्थ - जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र के पार्श्व-तट पर स्थित होता है । २. देशतः पार्श्वस्थ – जो शय्यातरपिंड, अभिहृतपिंड, राजपिंड, नित्यपिंड, अप्रपिंड का विशेष आलम्बन के बिना सेवन करता है । पार्श्वस्थ की पहली व्याख्या का संबंध शायद नियतिवादी आजीवक सम्प्रदाय से है और दूसरी स्वयूथिक जैन निर्ग्रन्थों से । पार्श्वस्थों को स्वयूथिक भी कहा गया है । वृतिकार ने पार्श्वस्व के दो बर्ष बतलाए है १. युक्तियों से बाहर ठहरने वाला - अयौक्तिक बात को मानने वाला । २. परलोक की क्रिया की व्यर्थता मानने वाला । अध्ययन १ टिप्पण ६४ १. वृत्ति, पत्र ३२ : सुखादिकं किञ्चिन्नियतिकृतम् - अवश्यंभावयत्रापितं तथा अनियतम् - आत्मपुरुषकारेश्वरादिप्रापितम् । २. (क) चूर्णि, पृ० ३२ : संतं सम्भूतं । (ख) वृत्ति, पत्र ३२ : संतं सत् । ३, ४. प्रवचनसारोद्धार, गाथा १०४, वृत्ति, पत्र २५ : पार्श्वे सटे ज्ञानादीनां यस्तिष्ठति स पार्श्वस्थः । अथवा मिथ्यात्वादयो बन्धहेतवः पाशा इव पाशास्तेषु तिष्ठतीति पाशस्थ: । ५. वही, गाथा १०४, १०५ : Jain Education International सो पासो दुविहो सच्चे देतेय होइ नायग्यो । सव्वंमि नाणदंसणचरणाणं जो उ पासंमि ॥ देसंमि य पासत्थो सेज्जायरऽभिहडराय पिण्डं च । नीयं च अग्गपिण्डं मुंजइ निक्कारणे चैव ॥ वृत्ति, पत्र २५ : स च द्विभेदः - सर्वतो देशतश्च तत्र सर्वतो यः केवलवेषधारी सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रेभ्यः पृथक् तिष्ठति, देशतः पुनः पाश्वः यः कारणं तथाविधमन्तरेण सध्यातराभ्याहुतं नृपतिपिण्डं पिण्डं वा भुङ्कते । ६. वृत्र३३कदम्बका बहिष्यन्तीति पार्श्वस्याः परलोकमित्यस्या वा नियतिपक्षसमायपणात् परलोककिया. । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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