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________________ सूयगडो १ अध्ययन १: टिप्पण ६५-६६ उनके अनुसार एकान्तवादी तथा कालवादी और ईश्वरकारणिक पार्श्वस्थ हैं।' चूर्णिकार ने इस शब्द की कोई व्याख्या नहीं की है। प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ-नियति का एकांगी आग्रह रखने वाले नियतिवादी ही उपयुक्त लगता है। नियतिवादी आजीवकों का संबंध भगवान् पावं की परम्परा से था, अतः उनके लिए 'पार्श्वस्थ' शब्द का उपयोग बहुत अर्थ-सूचक है। ६५ एवंपुवट्टिया यहां तीन पदों में संधि है-एवं+अपि+उवट्ठिया । इसका अर्थ है-साधना मार्ग में प्रवृत्त होने पर भी । श्लोक ३३: ६६. मृग (मिगा) ___ मृग के दो अर्थ होते हैं-हिरण और आरण्यक पशु। चूणिकार ने प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ-वातमृग' किया है। यह हिरणों की एक जाति है जो तीव्र-गमन के लिए प्रसिद्ध है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ-आरण्यक पशु किया है। ६७ मृगजाल से (परिताणेण) चणिकार और वृत्तिकार इसका सर्वथा भिन्न अर्थ करते हैं। चूणिकार ने इसका अर्थ वागुरा-मृगजाल किया है और वृत्तिकार ने इसका अर्थ परित्राण--रक्षा का साधन माना है। इस अर्थ-भेद का मूल कारण यह प्रतीत होता है कि चूणिकार ने 'परिताणेण तज्जिया' मान कर यह अर्थ किया है और वत्तिकार ने 'परिताणेण वज्जिया' मानकर अर्थ किया है। 'तज्जिया' और 'वज्जिया' के कारण ही यह अर्थ-भेद हआ है। वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप से चूर्णिकार के अर्थ को मान्य किया है।' ६८. भयभीत (तज्जिया) मग उस मगजाल में फंस कर बाहर नहीं निकल पाते। एक ओर वह मृगजाल होता है और दूसरी ओर हाथी, अश्व और पैदल सेना होती है । एक ओर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पाशकूट आदि होते हैं । इस स्थिति में वे मरण-भय से उद्विग्न हो जाते हैं। ६९. श्रान्त (दिग्मूढ) होकर (संता) चूणिकार ने इस शब्द के द्वारा मृग की यौवन अवस्था का ग्रहण किया है। वह मृग अनुपहत शरीर, वय और अवस्था वाला तथा शक्तिसंपन्न होता है। १. वृत्ति, पत्र ३३ : एकान्तवादिनः कालेश्वरादिकारणिकाः पावस्थाः . २. चूणि, पृ० ३२ : मृगाः तत्रापि वातमृगाः परिगृह्यन्ते । ३. वृत्ति, पत्र ३३ : मृगा आरण्याः पशवः । ४. (क) चूणि, पृ० ३२ : परितानः वागुरेत्यर्थः । (ख) वृत्ति, पत्र ३३ : परि-समन्तात् त्रायते-रक्षतीति परित्राणम् । ५. (क) चूगि, पृ० ३२ : परिताणेण तज्जिता-तज्जिता वारिता प्रहता इत्यर्थः । (ख) वृत्ति, पत्र ३३ : परित्राणं तेन वजिता-रहिताः । ६. वृत्ति, पत्र ३३ : यदि वा-परितानं वागुरादिबन्धनम् ।। ७. चूणि, पृ० ३२ : न शक्यमेतत् परितानं निस्सर्तुम् । सा च एगतो वागुरा, एकतो हस्त्यश्वपदातिवती ययाविभवतो सेना, एकतः पाश-कूटोपगा यथाविभागशः । नित्यत्रस्ताः तत्र ते मृगाः स्वजात्यादिभिः परितुद्यमाना मरणभयोद्विग्नाः । ८. वही, पृ० ३२ : संतग्रहणाग्निरुपहतशरीर-बयो-ऽवस्था अक्षीणपराक्रमाः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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