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सूयगडो १
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प्रध्ययन १:टिप्पण ७०-७४ वृत्तिकार ने इसको शतृ प्रत्यय का बहुवचन मात्र माना है ।' हमने इसका अर्थ श्रान्त किया है।
श्लोक ३५ : ७०. बाध को (वज्झ)
बत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैं-वध और 'बन्ध'। इसका अर्थ है-बन्धन के आकार में व्यवस्थित वागुरा आदि। बन्धन बांधने के कारण बंध कहलाते हैं ।
इसका संस्कृत रूप 'वर्ध' ही होना चाहिए । ७१. पदपाश से (पयपासाओ)
चूर्णिकार ने 'पदपाश' का अर्थ 'कूट' किया है।
वत्तिकार ने पदपाश के दो अर्थ किए हैं। 'पदपाश' को एक शब्द मानकर उसका अर्थ वागुरा आदि बन्धन किया है और 'पद' तथा 'पाश' को भिन्न-भिन्न मानकर पद का अर्थ कूट और पाश का अर्थ बन्धन किया है।'
श्लोक ३६ ७२. विषमान्त-संकरे द्वार वाले (विसमते...)
वृत्तिकार ने 'विसमतेणुवागते' इस पद की दो प्रकार से व्याख्या की है। (१) विषमान्तकूट, पाश आदि से युक्त प्रदेश से उपागत (२) विषम अन्त वाले कूटपाश आदि में स्वयं को फंसाने वाला।' चणिकार ने 'विसमंतेणुवागये'-इनको तीन पद मानकर 'विसम' को वागुरा-द्वार का विशेषण माना है।'
श्लोक ३७: ७३. अनार्य (अणारिया)
अनार्य तीन प्रकार के होते हैं-ज्ञान अनार्य, दर्शन अनार्य और चारित्र अनार्य।'
वृत्तिकार ने असद् प्रवृत्ति करने वाले को अनार्य माना है। प्रज्ञापना में आर्य और म्लेच्छ (अनार्य) के अनेक प्रकार निर्दिष्ट हैं। ७४. अशंकनीय के प्रति.........शंका नहीं करते (असंकियाइं.........असंकिणो)
वे मिथ्यादृष्टि अनार्य ज्ञान, दर्शन, और चरित्र तथा जो अशंकनीय हैं उनके प्रति शंका करते हैं और कहते हैं कि संसार जीव-बहुल है, अतः यहां अहिंसा का पालन नहीं किया जा सकता। जिन कुदर्शनों के प्रति शंकित रहना चाहिए उनके प्रति वे श्रद्धा व्यक्त करते हैं और उन पर विश्वास करने हैं।" १. वृत्ति, पत्र ३३ : (वेगवन्तः) सन्तः । २. वृत्ति, पत्र ३३ : वज्झं ति वधं यदि वा बन्धनाकारेण व्यवस्थित वागुरादिकं वा बन्धनं बन्धकत्वाद् बन्धमुच्यते । ३. चणि, पृ० ३३ : पदं पासयतीति पदपाश: कूड: उपको वा। ४. वृत्ति, पत्र ३४ : पदे पाशः पदपाशो-वागुरादिबन्धनं तस्मान्मुच्येत, यदि वा पदं-कूटं पाश:-प्रतीतः । ५. वृत्ति, पत्र ३४ : विषमान्तेन कूटपाशादियुक्तेन प्रदेशेनोपागतः, यदि वा-विषमान्ते-कूट पाशादिके। ६. चूणि, पृ० ३३ । ७. वही, पृ० ३३ : अणारिय त्ति णाण-दंसण-चरित्त-अणारिया । ८. वृत्ति, पत्र ३४ : अनार्या अज्ञानावृतत्वादसदनुष्ठायिनः । ६. प्रज्ञापना, पद १, सूत्र ८८-१२६ । १०. चूणि, पृष्ठ ३३ : ते असंकिताई संकिंती, णाण-दंसण-चरित्ताई (असंकणिज्जाइं) ताई तपोभीरुत्वाद् अन्यैश्च जीवबहुत्वादिभिः
पदैर्नात्र शक्यते अहिंसा निष्पादयितुमिति संकति ण सद्दहंति, संकिताई कुदसणाई ताई असंकिणो सद्दहति पत्तियंति ।
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