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सूयगडौ १
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अध्ययन १ : टिप्पण ७५-७६
श्लोक ३८ ७५. अव्यक्त (अवियत्ता)
अव्यक्त का अर्थ है-अपरिपक्व बुद्धि वाले । जो हिंसा और अहिंसा में भेद करना नहीं जानते उन्हें यहां अव्यक्त कहा गया
अव्यक्त की व्याख्या अनेक प्रकार से की गई है। जिसके कोख आदि में केश नहीं आ जाते तब तक वह अव्यक्त होता है। सोलह वर्ष की आयु के नीचे वाला व्यक्ति अव्यक्त होता है।' ७६. मोहमूढ (मूढगा)
मूढ दो प्रकार के होते हैं-अज्ञानमूढ और दर्शनमूढ ।'
वृत्तिकार ने सहज सद्विवेक से विकल व्यक्ति को मूढ माना है।' ७७. शंका करते हैं (संकति)
धर्म-प्रज्ञापना के विषय में उनका मत है कि इसकी आराधना कठिन है । अथवा वे उन पर श्रद्धा ही नहीं करते। अथवा यह ऐसा ही है या नहीं, ऐसी शंका करते हैं-जैसे पृथ्वी आदि प्राणियों में जीवत्व है या नहीं ?"
श्लोक ३६ :
७८. श्लोक ३९
प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त सर्वात्मक, व्युत्कर्ष, नूम और अप्रीतिक-ये चारों शब्द चार कषाय के वाचक हैं ।
लोभ सब कषायों में व्याप्त रहता है अथवा सब कषाय लोभ में व्याप्त रहते हैं, इसलिए उसका नाम 'सर्वात्मक' है। अभिमान में अपने उत्कर्ष का अनुभव होता है, इसलिए उसका नाम 'व्युत्कर्ष' है । ''म' देशी शब्द है। उसका अर्थ है-गहन । गहन का अर्थ है-दुर्ग या अप्रकाश । माया में छिपाव या गहनता होती है, इसलिए उसका नाम 'नूम' है । क्रोध प्रीति का विनाश करता हैं, इसलिए उसका नाम अप्रीतिक है। ७९. अकर्माश (सिद्ध) (अकम्मसे)
जहां कर्म का अंशमात्र भी शेष न हो उस अवस्था को अकर्माश अवस्था कहते हैं। यह सिद्ध अवस्था है । कषाय के नष्ट होने पर मोहनीय कर्म का नाश हो जाता है। उसके नष्ट होने पर साधक आगे बढ़ता हुआ विशिष्ट ज्ञान (केवलज्ञान) को प्राप्त होता है और अन्त में भवोपग्राही कर्मों को नष्ट कर, अकर्मांश होकर, सिद्ध हो जाता है।
१.णि, पृष्ठ ३२ : अवियत्ता णाम अव्यक्ताः णाऽऽरंभादिसु दोसेसु विसेसितबुद्धयः । २. निशीथभाष्य, गाथा ६२३७, चूणि : जाव कक्खादिसु रोमसंभवो न भवति ताव अम्वत्तो............. अहवा जाव सोलसवरिसो
ताव अव्वत्तो। ३. चूणि, पृष्ठ ३३ : मूढा अज्ञानेन दर्शनमोहेन । ४. वृत्ति, पत्र ३४ : मुग्धाः-सहजसद्विवेकविकलाः । ५. चूणि, पृष्ठ ३३ : धम्मपण्णवणा-तीसे संकंति बेभेन्ति दुक्खं कज्जति अधवा ण सद्दहति । अधवा किमेवं ण व त्ति वा संकेति,
पृथिव्यादिजीवत्वं । ६.णि, पृष्ठ ३४ : सर्वत्राऽऽत्मा यस्य स भवति सर्वात्मकः, अथवा जे भावकषायदोसा ते वि सव्वे लोभे संभवंतीति सव्वप्पगं ।
............। विविध जात्यादिभिर्मवस्यानैरात्मानं उक्कस्सति विउक्कस्सति । नम गहनमित्यर्थः । दव्वण्णमं दुग्गं अप्पगासं वा, भावण्णूमं माया। ..... ....... । किंचि अप्पत्तियं णाम रूसियवं, तदपि अप्पत्तियं । ७. चूर्णि, पृष्ठ ३४।
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