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________________ सूयगडो १ २६४ अध्ययन ६ : टिप्पण २६-३२ चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-जिसका वर्तमान जन्म ही अंतिम है, जिसका आगामी जन्म नहीं होता, जिसके आगामी आयुष्य का बंध नहीं होता, वह अनायु होता है।' वृत्तिकार के अनुसार अनायु वह होता है जिसकी जन्म-मरण की शृंखला टूट जाती है। गति के आधार पर आयु के चार प्रकार हैं-नरक आयु, तिर्यञ्च आयु, मनुष्य आयु और देव आयु । जो इन चारों गतियों से मुक्त होकर अगतिक हो जाता है, सिद्ध हो जाता है, वह अनायु हो जाता है । कर्मबीज के संपूर्ण दग्ध हो जाने से फिर उसकी उत्पत्ति नही होती। श्लोक ६: २६. सत्यप्रज्ञ (भूइपण्णे) भूति शब्द के तीन अर्थ हैं-वृद्धि, रक्षा और मंगल । इनके आधार पर 'भूतिप्रज्ञ' के तीन अर्थ होते हैं १. जिसकी प्रज्ञा प्रवृद्ध होती है। २. जिसकी प्रज्ञा सब जीवों की रक्षा में प्रवृत्त होती है । ३. जिसकी प्रज्ञा मंगलमय होती है।' ३०. गृहत्याग कर विचरने वाले (अणिएयचारी) चूणिकार और वृत्तिकार ने इसका अर्थ अनियतचारी-अप्रतिबद्ध विहारी किया है। भगवान् अपरिग्रही थे, इसलिए उनकी गति का कोई प्रतिबन्धक नहीं था । वे अप्रतिबद्ध विहारी थे।' शाब्दिक दृष्टि से अनिकेतचारी—यह अर्थ अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। इसका तात्पर्य होता है--गृह से मुक्त होकर विचरने वाला। ३१. संसार-प्रवाह के पारगामी (ओहंतरे) ओघ का शाब्दिक अर्थ है-प्रवाह । ओघ दो प्रकार का है---द्रव्यौघ---जलप्रवाह और भावौघ-संसार-प्रवाह । जो संसारप्रवाह को तर जाता है, वह ओघंतर है। आचारांग में बताया गया है कि मूढ़ मनुष्य ओघंतर नहीं होता-संसार-प्रवाह को तैरने में समर्थ नहीं होता।' ३२. अनंत चक्षु वाले (अणंतचक्खु) स्थानांग में तीन प्रकार के चक्षु बतलाए गए हैं - १. एक चक्षु-छद्मस्थ एक चक्षु होता है। २. द्विचक्षु-देवता द्विचक्षु होता है। ३. त्रिचक्षु-अतिशयज्ञानी मुनि त्रिचक्षु होता है। १ चूणि, पृ० १४४ : अनायुरिति नास्याऽऽगामिष्यं जन्म विद्यते आगमिष्यायुष्कबन्धो वा। २ वृत्ति, पत्र १४५: न विद्यते चतुर्विधमप्यायुर्यस्य स भवत्यानायुः, दग्धकर्मबोजत्वेन पुनरुत्पत्तरसंभवादिति । ३. (क) चूणि पृ० १४४ : भूतिहि वृद्धौ रक्षायां मङ्गले च भवति । वृद्धौ तावत् प्रवृद्धप्रज्ञः, अनन्तज्ञानवानित्यर्थः, रक्षायाम्-रक्षाभूताऽस्य प्रज्ञा सर्वलोकस्य सर्वसत्त्वानां वा, मङ्गलेऽपि-सर्वमङ्गलोत्तमोत्तमाऽस्य प्रज्ञा। (ख) वृत्ति, पत्र १४५॥ ४. (क) चूणि, पृ० १४४ : अनियतं चरतीति अनियतचारी। (ख) वृत्ति पत्र १४५ : अनियतम् अप्रतिबद्धं परिग्रहायोगाच्चरितु शीलमस्यासावनियतचारी। ५. चूणि, पृ० १४४ : ओघो द्रव्योधः समुद्रः, भावौधः संसारः, तं तरतीति ओघंतरः । ६. आयारो २७१ : अणोहंतरा एते, नो य ओहं तरित्तए । ७. ठाणं, ३।४६६ : तिविहे चक्खू पण्णत्ते, तं जहा–एगचक्खू, बिचक्खू, तिचक्खू । छउमत्थे णं मणुस्से एगचक्खू, देवे विचक्खू, नहारूवे समणे वा माहणे वा उप्पण्णणाणदंसणधरे तिचक्खूत्ति वत्तव्वं सिया। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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