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सूयगड १
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अध्ययन ६ : टिप्पण २५-२८
वृत्तिकार के अनुसार जो असह्य परीषह और उपसर्गों से पीड़ित होने पर भी अप्रकंपित रहता हुआ चारित्र में दृढ़ रहता है, वह धृतिमान् है ।'
२५. स्थितात्मा (ठिपप्पा )
जिसकी आत्मा संयम या धर्म में स्थित होता है वह स्थितात्मा है - यह चूर्णिकार की व्याख्या है।' वृत्तिकार ने सिद्धस्वरूप आत्मा को स्थितात्मा माना है ।"
२६. अपरिग्रही (गंथा अतीते )
ग्रन्थ दो प्रकार के होते हैं
द्रव्य ग्रन्थ पदार्थं ।
भाव-ग्रन्थ — क्रोध आदि कषाय ।
भगवान् ग्रन्थों से अतीत थे अर्थात् वे निर्ग्रन्थ थे । यह एक अर्थ है । चूर्णिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार किया है— ग्रन्थ का अर्थ है स्वाध्याय । जो स्वाध्याय से अतीत हो जाता है वह ग्रन्थातीत होता है । भगवान् शास्त्र पढ़कर नही जानते थे, किन्तु अपने आत्मज्ञान से जानते थे, इसलिए वे ग्रन्थातीत या शास्त्रातीत थे । '
वृत्तिकार ने भी ग्रन्थ के बाह्य ग्रंथ और आभ्यन्तर ग्रन्थ-- ये दो भेद करते हुए कर्म को आभ्यन्तर ग्रन्थ माना है । जो ग्रन्थ से अतीत है वही निर्ग्रन्थ है ।"
हमने इसका अर्थ अपरिग्रही किया है। पदार्थ, क्रोध आदि कषाय और कर्म - ये सब परिग्रह हैं । स्थानांग में परिग्रह के तीन प्रकार बतलाए हैं—शरीर, उपकरण और कर्म । यथार्थ में निर्ग्रन्थ वही है जो इन ग्रन्थियों से मुक्त होता है ।
२७. अभय ( अमर )
भय के सात प्रकार हैं-इहलोक भय, परलोक भय, आदान भय, अकस्मात् भय, वेदना भय, मरण भय और अश्लोक भय । " जो इन सब भयों से रहित होता है, वह अभय है यह वृत्तिकार का अर्थ है । "
चूर्णिकार के अनुसार जो दूसरों को अभय देता (करता) है और स्वयं किसी से नहीं डरता, वही वास्तव में अभय
होता है।'
२८. अनायु (जन्म-मरण के चक्रवाल से मुक्त ) ( अणाऊ )
भगवान् महावीर शरीर के ममत्व का विसर्जन कर आत्मस्थ हो गए थे। आत्मस्थ पुरुष आयु की सीमा से परे चला जाता है | चैतन्य के अनुभव में रहने वाला शाश्वत हो जाता है, फिर आयु उसे अपनी सीमा मे नहीं बांध सकता । इसीलिए भगवान् को 'ना' कहा गया है।
१. वृत्ति पत्र १४४ तथाऽसहापरीषहोस
२. चूर्ण, पृ० १४४ : संयम एव यस्य स्थित आत्मा धर्मे वा सो ठितप्पा |
३. वृत्ति, पत्र १४४ : स्थितो व्यवस्थितोऽशेषकर्म विगमादात्मस्वरूपे आत्मा यस्य स भवति स्थितात्मा ।
सोऽपि निष्प्रकम्पतया चारित्रं धृतिमान्
४. णि, पृ० १४४ : ग्रंथादतीते ति गंथातीते । दब्वगंधो सचित्तावि, भावे कोधादि, द्विधाऽप्यतीतः निर्ग्रन्थ इत्यर्थः ।
५. वृत्ति, पत्र १४४, १४५ बाह्यग्रन्थात् सचित्तादिभेदादान्तराञ्च कर्मरूपाद् अतीतो अतिक्रान्तो ग्रन्थातीतो निर्ग्रन्थ इत्यर्थः ।
बाहिरमंदमतपरि
६. २६५ तिथि पर पाले से जहाकम्पपरिण, सरीररि
तं
७. ठाणं ७२७ : सत्त मयट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा - इहलोगभए, परलोगभए, आदाणभए, अकम्हा भए, वेयणमए, मरणभए, असिलोगभए। इनकी विस्तृत व्याख्या के लिए देखें- ठाणं पृ० ७२१,७२२ । ८ वृत्ति, पृ० १४५ न विद्यते सप्तप्रकारमपि भयं यस्यासावमयः समस्तभयरहित इत्यर्थः । ६. चूर्णि, पृ० १४४ : अभए एति अभयं करोत्यन्येषां न च स्वयं विमेति ।
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