SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगडो १ २९२ लिए उपदेश नहीं करते जैसे वे संपन्न को उपदेश देते है, वैसे ही विपन्नको उपदेश देते हैं और जैसे विपन्नको उपदेश देते हैं जैसे ही संपन्न को उपदेश देते हैं। यह धर्म का सम्यक् प्रतिपादन है । श्लोक ५ : २२. (से सव्वदंसी अभिभूय णाणी ) इसका तात्पर्यार्थ है कि भगवान् महावीर आवरण का निरसन कर सर्वदर्शी और सर्वज्ञ बने थे । दर्शन चार हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदशन । जो तीनों दर्शनों को अभिभूत कर अतिक्रान्त कर केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है वह सर्व दर्शी या केवलदर्शी हो जाता है । ज्ञान पांच हैं— मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान । जो मति आदि चार ज्ञानों को अभिभूत कर केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है, वह अभिभूतज्ञानी कहलाता है। एक शब्द में वह निरावरणज्ञानी है । आचारांग में 'अभिभूय' के साथ 'दिट्ठ" और 'अदक्खू" का प्रयोग हुआ है। उससे भी 'आवरण को अभिभूत कर यह अर्थ फलित होता है । आचारांग ६।१।१० में 'अरई रई अभिभूय रीयई' का प्रयोग मिलता है । भगवान् महावीर अरति और रति को अभिभूत कर विहार करते थे । अरति और रति का अभिभव करने वाला ही ज्ञानी होता है । जैसे सूर्य समस्त प्रकाशवान् पदार्थों को अभिभूत कर जगत् में अकेला प्रकाशित होता है, वैसे ही केवलज्ञानी और केवलदर्शी लौकिक अज्ञानों को अभिभूत कर केवलज्ञान और केवलदर्शन के द्वारा प्रकाशित होता है । * २३. विशुद्ध भोजी ( णिरामगंधे) अध्ययन ६ टिप्पण २२-२४ : - इसका अर्थ है – विशुद्ध भोजी। जो आहार संबंधी सभी दोषों का वर्जन कर आहार करता है, यह विशुद्ध भोजी होता है । आहार संबंधी दोष दो प्रकार के होते हैं - अविशोधिकोटिक और विशोधिकोटिक । जो मूल दोष होते हैं वे अविशोधिकोटिक होते हैं और जो उत्तर दोष होते हैं वे विशोधिकोटिक होते हैं।" चूर्णिकार ने यह सूचना देने के लिए शब्द को 'निराम' और निर्गन्ध - इन दो भागों में बांटा है।' आचारांग २1१०८ में 'सव्वामगंधं परिण्णाय, णिरामगंधी परिव्वए' पाठ है। इसका अर्थ है - श्रमण सब प्रकार के अशुद्ध भोजन का परित्याग कर शुद्धभोजी रहता हुआ परिव्रजन करे। २४. धृतिमान् ( धि ) भगवान् की संयम में धृति थी, इसलिए उन्हें धृतिमान् कहा गया है ।' आचारांग में उनकी धृति का विशद वर्णन मिलता १. आयारो २।१७४ : जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थई । जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कस्थइ || २. आवारी, १६० वीरेह एवं अभिभूय ि २. आवारी, ५०१११ अभिभूय अव ४. पूर्णि, १० १४३-१४४ 1 पासति ति सम्सी, केवलदर्शनीयुक्तं भवति चत्वारि ज्ञानानि प्रीमी दर्शनानि भास्कर इव सर्वतेजांस्यभिभूय केवलदर्शनेन जगत् प्रकाशयति । ज्ञानीति एवं केवलज्ञानेनापि अभिभूय इति वर्तते, उभाभ्यामपि कृत्स्नं लोकालोकमवभासते अथवा लौकिकानि अज्ञानान्यभिभूय केवलज्ञान दर्शनाय सद्योत कानिवाssदित्यः एकः प्रकाशते । ५. वृत्ति, पत्र १४४ । निर्गतः - अपगत आमः -- अविशोधिकोट्याख्यः तथा गन्धो विशोधिकोटिरूपो यस्मात् स भवति निरामगन्धः, मूलोत्तरगुणमेदभिन चारित्रयां कृतवानित्यर्थः । 1 ६. पूर्णि, पृ० १४४ गिरामधे निरामोसी निर्गग्यश्व, आम इति उद्गमोदि । ७. आयारो, पृ० १३ । पणि, पृ० १४४ तिरस्यास्तीति धृतिमान् संयमे धृतिः । ६. आधारो, नौवां अध्ययन; आयारचुला, सोलहवां अध्ययन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy