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सूयगडो १
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अध्ययन ६ : टिप्पण ३३-३६
भगवान् महावीर अनन्त चक्षु थे। चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं । भगवान् का केवल दर्शन अनन्त था तथा वे अनन्त लोक के चक्षुभूत थे, इसलिए वे अनन्तचक्षु थे।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है-ज्ञेय पदार्थों की अनन्तता के कारण वे अनन्तचक्षु थे। ३३. अनुपम प्रभास्वर (अणुत्तरं तवति)
जैसे सूर्य सबसे अधिक प्रकाशकर है वैसे ही भगवान् महावीर अपने अनन्तज्ञान से सबसे अधिक प्रभास्वर हैं ।'
इसका वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार है-जैसे सूर्य तालाब या धान्य आदि को तपाता है वैसे ही भगवान् अणुत्तर--अवशिष्ट कर्मों को तपाते हैं।' ३४. प्रदीप्त अग्नि (वइरोणिदे)
वैरोचन का अर्थ है-अग्नि । यह समस्त दीप्तिमान् पदार्थों में इन्द्रभूत है-प्रधान है, श्रेष्ठ है, इसलिए इसे वैरोचनेन्द्र कहा गया है । जैसे घृत से अभिषिक्त वैरोचन अंधकार को प्रकाशित करता है, इसी प्रकार भगवान् अज्ञानरूपी अंधकार को प्रकाशित करते हैं।
वृत्तिकार ने प्रज्वलित अग्नि को वैरोचनेन्द्र माना है। उन्होंने इन्द्र का अर्थ दीप्ति, प्रज्वलन किया है।
श्लोक ७:
३५. आशुप्रज्ञ (आसुपण्णे)
देखें-२ का टिप्पण। ३६. नेता (णेता)
नेता का अर्थ है-ले जाने वाला । भगवान् महावीर नेता थे, पूर्ववर्ती तीर्थंकर जैसे ले गए थे, वैसे ये भी ले जाने वाले थे, पूर्ववर्ती तीर्थंकरों के धर्म को आगे बढ़ाने वाले थे।'
वृत्तिकार ने यहां व्याकरण विमर्श इस प्रकार प्रस्तुत किया है।
'नेता' शब्द में ताच्छील्यार्थक तृन् प्रत्यय हुआ है। इसके योग में 'न लोकाव्ययनिष्ठे........... (पा० २।३।६६) । इस सत्र से षष्ठी विभक्ति का प्रतिषेध होने पर 'धर्मम्' इस पद में कर्मणि द्वितीया विभक्ति हुई है।
१. चूणि, पृ० १४४ : अणंतचक्षुरिति अगंतं केवलदर्शनं तदस्य चक्षुरिति अनन्तचक्ष., अनन्तस्य वा लोकस्यासौ चक्षुर्भूतः । २. वृत्ति, पत्र १४६ : तथा अनन्तं-ज्ञेयानन्ततया नित्यतया वा चक्षुरिव चक्षः-केवलज्ञानं यस्यानन्तस्य वा लोकस्य पदार्थप्रकाशक
तया चक्षुभूतो यः स भवत्यनन्तचक्षुः । ३. (क) चूणि, पृ० १४४ : न हि सूर्यादन्यः कश्चित् प्रकाशाधिकः, एवं भट्टारकादपि नान्यः कश्चिद् ज्ञानाधिकः णाणेणं चेव ओभासति
तवति मासेति । (ख) वृत्ति, पत्र १४५ : अनुत्तरं सर्वाधिक तपति न तस्मादधिकस्तापेन कश्चिदस्ति, एवमसावपि भगवान् ज्ञानेन सर्वोत्तम इति । ४. चूणि, पृ० १४४ : अवसेसं च कर्म तवति, आदित्य इव सरांसि तपति औषधयो वा। ५. चूणि, पृ० १४४ : वैरोयणेदो व 'रुच दीप्तौ' विविधं रुचतीति वैरोचनः अग्निः, स हि सर्वदीप्तिवतां द्रव्याणामिन्द्रभूत इत्यतो वैरोच
नेन्द्र ; स यथा आज्याभिषिक्त: तमः प्रकाशयति एवं भगवानप्यज्ञानतमांसि प्रकाशयति । ६. वृत्ति, पत्र १४५ : वैरोचन: अग्निः स एव प्रज्वलितत्वात् इन्द्रः । ७. चूणि, पृ० १५४ : अयमेव भगवान् नयतीति नेता, कोऽर्थः ? जधा ते भगवन्तो नीतवन्तः तथाऽयमपि नयति । ८. वृत्ति, पत्र, १४५ : नेता प्रणेतेति ताच्छीलिकस्तृन्, तद्योगे 'न लोकाव्ययनिष्ठे' (पा० २-३-६६) त्यादिना षष्ठीप्रतिषेधाद्धर्ममित्यत्र
कर्मणि द्वितीयव।
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