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________________ सूयगडो १ २६६ अध्ययन ६ : टिप्पण ३७-४२ ३७. स्वर्ग में (दिविणं) ये दो शब्द हैं । दिवि का अर्थ है-स्वर्ग में और 'ण' वाक्यालंकार है।' चूर्णिकार ने 'दिविणं' शब्द मानकर 'दिविभ्यः'-देवताओं से, ऐसा चतुर्थ्यन्त अर्थ किया है। इन्द्र समस्त देवताओं से स्थान, ऋद्धि , स्थिति, द्युति, कान्ति आदि में विशिष्ट होता है।' ३८. अधिक प्रभावी (अणुभावे) __ अनुभाव का अर्थ है-प्रभाव । चूणिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं--सौख्य, वीर्य और माहात्म्य । भगवान् महावीर महान् प्रभाव वाले थे। ३६. हजारों देवों का नेता (सहस्सणेता) __ इसका अर्थ है-हजारों का नेता, नायक । चूर्णिकार ने 'सहस्सणेत्ता' पाठ माना है। इसका अर्थ है-हजार आंखों वाला। उन्होंने इसका वैकल्पिक अर्थ-अनेकों का या हजारों का नेता भी किया है।' श्लोक : ४०. पार रहित स्वयंभूरमण (महोदही वा वि अणंतपारे) _ 'महोदही'-यह स्वयंभूरमण समुद्र का वाचक है। जैसे यह विस्तीर्ण, गंभीर जल वाला और अक्षोभ्य होता है वैसे ही महावीर की अनन्तगुणवाली प्रज्ञा विशाल, गंभीर और अक्षोभ्य थी।' ४१. प्रज्ञा अक्षय थी (पण्णया अक्खय ......) चूर्णिकार ने प्रज्ञा का अर्थ-ज्ञान की संपदा किया है। जो कभी क्षीण न हो, उसे अक्षय कहा जाता है । भगवान् महावीर की प्रज्ञा अक्षय थी। वह प्रज्ञा ज्ञेय अर्थ में कभी क्षीण और प्रतिहत नहीं होती थी। वह काल से आदि-सहित और अनन्त-रहित तथा द्रव्य, क्षेत्र और भाव से अनन्त थी।' ४२. निर्मल (अणाइले) चूणिकार ने इसका अर्थ- अनातुर किया है। जो परीषह और उपसर्गों के आने पर भी आकुल-व्याकुल नहीं होता वह अनातुर होता है। १. वत्ति, पत्र १४५ : दिवि स्वर्गे ....... 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे । २. चूणि, पृ० १४४ : दिवि भवा दिविनः । सर्वेभ्यो दिविभ्यः स्थान-रिद्धि-स्थिति-धति-कान्त्यारिभिविशिष्यते इति विशिष्ट: किमुतान्येभ्यः ? ३. चूणि, पृ० १४४ : अनुभवनमनुभावः, सौरूपं बोयं माहात्म्यं चानुभावः । ४. वृत्ति, पत्र १४५ : महानुभावो महाप्रभाववान् । ५. चूणि, पृ० १४४ : सहस्रमस्य नेत्राणां सहस्सनेत्ता, अनेकानां वा सहस्राणां 'नेता' नायक इत्यर्थः । ६ वृत्ति, पत्र १४५ : महोदधिरिव स्वयम्भरमण इव । ७ चूणि, पृ० १४४ : यथाऽसौ (स्वम्भूरमणः) विस्तीर्ण-गम्भीरजलो अक्षोभ्य एवमस्यानन्तगुणा प्रज्ञा विशाला गम्भोरा अक्षोभ्या ८. (क) चूर्णि, पृ० १४४ : ज्ञायतेऽनेनेति प्रज्ञा ज्ञानसम्पत्, न तस्य ज्ञातव्येऽर्थे बुद्धिः परिक्षीयते प्रतिहन्यते वा, सादी अपज्जवसितो कालतो, दग्व-खेत्त-भावेहि अणंते । (ख) वृत्ति, पत्र १४५ : असौ भगवान् प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा तया 'अक्षयः' न तस्य ज्ञातव्येऽर्थे बुद्धिः प्रतिक्षीयते प्रतिहन्यते वा, तस्य हि बुद्धि : केवलज्ञानाख्या, सा च साद्यपर्यवसाना कालतो द्रव्यक्षेत्रमावरप्यनन्ता, सर्वसाम्येन दृष्टान्ताभावाद । ९. चूणि, पृ० १४४ : अणाइलो णाम परीषहोपसर्गोदयेऽप्यनातुरः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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