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________________ सूयगडो १ २६७ अध्ययन ६: टिप्पण ४३-४५ वृत्तिकार ने इसका अर्थ अकलुषित-निर्मल किया है। यह अर्थ शाब्दिक दृष्टि से अधिक ग्राह्य है । तात्पर्यार्थ की दृष्टि से चूर्णिकार का अर्थ मन को अधिक छूने वाला है। ४३. वीतराग (अकसाइ) कषाय चार हैं --क्रोध, मान, माया और लोभ । जिसके कषाय उपशान्त होते हैं, वह उपशान्त कपाय और जिसके क्षीण होते हैं वह क्षीण कषाय कहलाता है । भगवान् महावीर के कषाय क्षीण हो चुके थे, इसलिए वे अकषाय थे और अकषाय होने के कारण वे निरुत्साह थे । कुछ व्यक्ति शक्ति होने पर भी पुरुषार्थ नहीं करते, इसलिए निरुत्साह होते हैं। कुछ व्यक्ति शक्तिहीन होने के कारण निरुत्साह होते हैं। भगवान् महावीर पुरुषार्थ और पराक्रम से युक्त थे। फिर भी क्षीणकषाय होने के कारण निरुत्साहआकांक्षाओं से मुक्त थे-क्रोध, अहंकार, माया और लोभ से प्रेरित प्रवृत्तियों से शून्य थे ।' ४४. (मुक्के) इसका अर्थ है- ज्ञानावरण आदि कर्म-बन्धन से विमुक्त आवरण-मुक्त ।' चूर्णिकार ने 'भिक्खु' पाठ मान कर व्याख्या की है । यद्यपि भगवान् के सभी अन्तराय नष्ट हो गए थे और वे जगत्पूज्य भी थे, फिर भी वे भिक्षावृत्ति से ही अपना निर्वाह करते थे इसलिए वे भिक्षु थे। उन्हें 'अक्षीणमहानस' आदि लब्धियां प्राप्त थीं, फिर भी वे उनका उपयोग नहीं करते थे।' श्लोकह : ४५. (सुरालए वा वि...णेगगुणोववेए) जैसे स्वर्ग शब्द आदि विषयों के सुख से समन्क्ति होता है, वैसे ही यह मेरु पर्वत शब्द आदि वैषयिक सुखों से समन्वित है । देवता देवलोक को छोड़कर यहां क्रीडा करने के लिए आते हैं। मेरु पर्वत पर ऐसा एक भी इन्द्रिय-विषय नहीं है जो इन्द्रिय बाले प्राणियों को प्रसन्न न करे । मेरु पर्वत वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, प्रभा, कान्ति, द्युति, प्रमाण आदि अनेक गुणों से समन्वित है, अत: वह सबको प्रसन्न करने वाला है। इसीलिए कहा है 'सुंदरजणसंसग्गी सीलदरिइंपि कुणइ सीलड्ढं । जह मेरुगिरिविच्छूढं तणंपि कणयत्तणमुवेति ।।' (ओघनियुक्ति गा० ७८४) शीलवान् व्यक्तियों का संसर्ग कुशील को भी सुशील बना देता है, जैसे मेरु पर्वत पर उगा हुआ तृण भी स्वर्णमय बन जाता है। १. वृत्ति, पत्र १४५ : अनाविलः अकलुषजल:, एवं भगवानपि तथाविधकर्मलेशाभावादकलुषज्ञान इति । २. चूणि, पृ० १४४, १४५ : अकसाय इति क्षीणकषाय एव, न तूपशान्तकषायः निरुत्साहवत्, इह कश्चित् सत्यपि बले निरुद्यमत्वादुप चारेण निरुत्साहो भवति, अन्यस्तु क्षीणविक्रमत्वाग्निरुत्साहः, एवमसो क्षीणकषायत्वान्निरुत्साहः । ३. वृत्ति, पत्र १४५ : ज्ञानावरणीया विकर्मबन्धनाद्वियुक्तो मुक्तः । ४. चूणि, पृ० १४५ : सत्यप्यसौ क्षीणान्तरायिकत्वे सर्वलोकपूज्यत्वे च भिक्षामात्रोपजीवित्वाद् भिक्षरेव नाक्षीणमहानसिकादिसर्वलब्धि सम्पन्नोऽपि स्यात् तामुपजीवतीत्यतो भिक्षुः । ५. (क) चूणि, पृ० १४५ : सुराणां आलयः, मुद हर्षे सुरालयः स्वर्गः, स यया शब्दादिविषयसुखः एवमसावपि स्वर्गतुल्यः शब्दादिभि विषयैरुपेतः, देवा अपि हि देवलोक मुक्त्वा तत्र क्रीडास्थानेषु क्रीडन्ते न हि तत्र किञ्चिच्छब्दादिविषयजातं यदिन्द्रियवता न मुदं कुर्यादिति । विविध राजति अनेकः वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-प्रभाव-कान्ति-यति-प्रमाणादि भिर्गणरुपपेतः सर्वरत्नाकरः। (ख) वृत्ति, पत्र १४६ । ६. चूणि, पृ० १४५। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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