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________________ सूयगडो १ ४६. सुदर्शन (मेल) (सुदंसणे) यह मेरु पर्वत का वाचक है। मेरु पर्वत दिखने में सुन्दर है इसलिए इसे सुदर्शन कहा गया है।' ४८. तीन कांडों ( भागों) वाला (तिकंडगे) ४७. वीर्य से (वीरिएणं) वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त वीर्य प्रतिपूर्ण नहीं होता, वह अपूर्ण होता है । जो वीर्यं कर्म के क्षय से प्राप्त होता है वह अनन्त और प्रतिपूर्ण होता है । भगवान् महावीर का वीर्यान्तराय कर्म संपूर्ण क्षीण हो चुका था, इसलिए उनका वीर्य अनन्त और प्रतिपूर्ण था । इसके फलस्वरूप उनका औरसबल, धृतिबल, ज्ञानबल और संहननबल प्रतिपूर्ण था । ' श्लोक १० : २६८ कांड का अर्थ है विभाग मेरु पर्वत के तीन कांड है- भौमकांड, स्वर्णकांड और बेडकांड 1 पंडकवनरूपी पताका से युक्त (पंडगवेजयंते ) 'पंडग' शब्द पंडकवन का द्योतक है और 'वैजयन्त' का अर्थ है-पताकारूप | पंडकवन मेरु पर्वत के शिखर पर स्थित है, अतः वह मेरु पर्वत का पताका रूप है । * चूर्णिकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है - वह मेरु पर्वत पंडकवन के द्वारा दूसरे पर्वतों और वनों पर विजय प्राप्त करता है, इसलिए वह 'पंडगवैजयन्त' है । " श्लोक ११ : ४९. भूमि पर स्थित (भूमिवट्टिए) भूमि पर स्थित मेरु पर्वतको अधोलो और तिलोक तीनों लोकों का स्पर्श करता है।" वह निशानवे हजार योजन भूमि से ऊपर उठा हुआ है, इस प्रकार वह ऊर्ध्वलोक का स्पर्श करता है। वह एक हजार योजन भूमि तल के नीचे है, इस प्रकार वह नीचे लोक का स्पर्श करता है । वह तिरछे लोक में है ही, इस प्रकार वह तिरछे लोक का स्पर्श करता है । स्वर्ण के वर्ण वाला (हेमवण्णे ) तपे हुए सोने के समान पीत रक्त वर्ण वाला । हर स्वर्ण को 'हेम' नहीं कहा जाता, किन्तु जो स्वर्ण में प्रधान होता है, उसे हेम कहा जाता है । ' 1 १. (क) चूणि, पृ० १४५ : शोभनमस्य दर्शनमिति सुदर्शन:, मेरुः सुदर्शन इत्यपदिश्यते । (ख) वृत्ति, पत्र १४६ : सुदर्शनो मेरुर्जम्बूद्वीपनाभिभूतः । २. (क) णि, पृ० १४५ : अध्ययन ६ टिप्पण ४६-४६ - Jain Education International (ख) वृत्ति पत्र १४२ ३. (क) चूर्णि पृ० १४५ : त्रीणि कण्डान्यस्य सन्तीति त्रिकण्डी । तं जधा १. मोम्मेव२ते३लिए कंडे (ख) वृत्ति, पत्र १४६ : त्रीणि कण्डान्यस्येति त्रिकण्डः, तद्यथा - मौमं जाम्बूनदं वैडूर्यमिति । ४. वृत्ति, पत्र १४६ : पण्डकवैजयन्त इति, पण्डकवनं शिरसि व्यवस्थितं वैजयन्ती कल्पं - पताकाभूतं यस्य स तथा । पंगवशेण चान्यपर्वतान् वनानि च विजयत इति पण्डवेजयन्तः । ५. पि ० १४५ बी औरस्वं पृति ज्ञानवीयं व सर्वरपि प्रतिपूर्णवीर्यः क्षायोपशमिकानि हि वीर्याणि अप्रतिपूर्णानि ज्ञाधिक त्वादनन्तत्वाच्च प्रतिपूर्णम् बीर्येण ओरसेन बलेन वृतिसंहननादिभिश्व बोर्यान्तरायस्य निःशेषतः क्षयात् प्रतिपूर्णवीर्थः । ६. (क) चूर्ण, पृ० १४५ : उड्ढलोगं च फुसति अहलोगं च, एवं तिणि वि लोगे फुसति । (ख) वृत्ति पत्र, १४६ : भूमि चाऽवगाह्य स्थित इति ऊर्ध्वाऽधस्तिर्यक् लोकसंस्पर्शी । ७. वृत्ति, पत्र १४६ : हेमवर्णो निष्टप्तजाम्बूनदामः । ८. चूर्ण, पृ० १४५ : हेममिति जं प्रधानं सुवर्णम्, निष्टप्त जम्बूनदरुचि इत्युक्तं भवति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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