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सूयगडो १
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अध्ययन ६ : टिप्पण ५०-५१ बहुतों को आनन्द देने वाला (बहुणंदणे)
चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. मेरु पर्वत पर आनन्द उत्पन्न करने वाले अनेक शब्द आदि विषय हैं इसलिए वह 'बहुणंदण' है। २. वह बहुतों को आनन्द देने वाला है, इसलिए 'बहुनंदन' है।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ सर्वथा भिन्न प्रकार से किया है । मेरु पर्वत अनेक वनों से शोभित है । उस पर चार वन हैं--.२ १. भद्रशालवन-यह मेरु के भूमीभाग पर स्थित है। २. नंदनवन-भूमी से ऊपर पांच सौ योजन ऊपर मेरु की मेखला में स्थित है। ३. सौमनसवन- नंदनवन से पांच सौ बासठ हजार योजन ऊपर स्थित है। ४. पंडकवन-सौमनसवन से छत्तीस हजार योजन ऊपर मेरु के शिखर पर स्थित है। वृत्तिकार ने इन चारों को नंदनवन माना है, क्योंकि ये सब आनन्द उत्पन्न करने वाले हैं।
५०. महान् इन्द्र (महिंदा)
चणिकार ने सौधर्म, ईशान आदि के इन्द्रों को 'महेन्द्र' बतलाया है। वे अपने-अपने विमानों को छोड़कर मेरु पर्वत पर आकर क्रीडा करते हैं।'
श्लोक १२:
५१. (सद्दमहप्पगासे)
वृत्तिकार ने इसको इस प्रकार व्याख्यात किया है-एवमादिभिः शब्दमहान् प्रकाश:-प्रसिद्धिर्यस्य स शब्दमहाप्रकाश:मेरु पर्वत की अनेक महान् शब्दों द्वारा लोकप्रसिद्धि है । वे शब्द हैं-मन्दर, मेरु, सुदर्शन, सुरगिरि, पर्वतराज, सुरालय आदि।'
चूर्णिकार ने मन्दर, मेरु, पर्वतराज आदि सर्वलोकप्रतीत शब्दों के द्वारा मेरु पर्वत को प्रकाशित माना है। जिसका आयत बड़ा होता है उसके शब्द समूचे लोक में परिभ्रमण करते हैं ।"
चमकते हुए सोने के वर्ण वाला (कंचणमट्रवणे) वृत्तिकार ने मृष्ट का अर्थ श्लक्ष्ण या शुद्ध किया है। चूणिकार ने 'अट्ठ सण्णे लण्हे'- यह पाठ उद्धृत कर इसका
१. चूणि, पृ० १४५ : बहुनन्दन इति बहून्यत्राभिनन्दजनकानि शब्दादिविषयजातानि बहूनां वा सत्त्वाना नन्दिजनकः । २. (क) वृत्ति, पत्र १४६ : तथा बहूनि चत्वारि नन्दनवनानि यस्य स बहुनन्दनवनः, तथाहि-भूमौ भवशालवनं ततः पञ्च योजन
शतान्यारुह्य मेखलायां नन्दनं ततो द्विषष्टियोजनसहस्राणि पंचशताधिकान्यतिक्रम्य सौमनसं ततः षट्त्रिंश
त्सहस्राण्यारुह्य शिखरे पण्डकवनमिति, तदेवमसौ चतुर्नन्दनवनायु पेतो विचित्रक्रीडास्थानसमन्वितः । (ख) जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, ४०२१४ । ३. चूणि, पृ० १४७ : महान्तो इन्द्रा महेन्द्राः शक्रेशानाद्या , ते हि स्वविमानानि मुक्त्वा तत्र रमन्ते । ४. वृत्ति पत्र १४६ : सः--- मेखियोऽयं पर्वतो मन्दरो मेरुः सुदर्शन: सुरगिरित्येवमादिभिः शब्दैर्महान् प्रकाशः-प्रसिद्धिर्यस्य स शब्द
महाप्रकाशः। ५. चूणि, पृ० १४६ : मन्दरो मेरुः पर्वतराजेत्यादिभिः शब्दः प्रकाशः सर्वलोकप्रतीतैः ओरालायतस्स सद्दा सव्वलोए परिभमंति । ६. वृत्ति, पत्र १४६ : मृष्टः--श्लक्ष्णः शुद्धो वा ।
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