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सूयगड १
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अध्ययन ६ : टिप्पण ५२-५४
तात्पर्यार्थ कोमल या समतल किया है।' वर्ण का एक अर्थ आकृति भी होता है। उसके आधार पर इसका अर्थ होगा - सोने की भांति चमकपूर्ण आकृति वाला ।
(गिरिसु
'गिरि' शब्द का सप्तमी विभक्ति का बहुवचन 'गिरीसु' होता है। प्रस्तुत प्रयोग में 'रि' ह्रस्व है । यह छन्द की दृष्टि से किया गया प्रतीत होता है ।
मेखलाओं से दुर्गम (पन्चदुणे )
इसका अर्थ है - मेरु पर्वत मेखलाओं से अति दुर्गम है । उन मेखलाओं पर सामान्य व्यक्ति नहीं चढ सकता | अतिशय शक्ति वाला ही उन पर चढ पाता है ।"
वृत्तिकार ने 'पर्व' के दो अर्थ किए हैं—मेखला अथवा दंष्ट्रापर्यंत (उप-पर्वत)
५२. (गिरीवरे से जलिए व भोमे)
मेरु पर्वत अनेक प्रकार की मणियों तथा औषधियों से देदीप्यमान था। वह ऐसा लग रहा था मानो कि कोई भूमि का प्रदेश प्रदीप्त हो रहा है।"
वृत्तिकार ने भौम का अर्थ - भू-प्रदेश किया है। पद्मचन्द्र कोष में भौम का अर्थ - आकाश भी मिलता है । अर्थ-संगति की दृष्टि से यह अर्थ उपयुक्त लगता है । इस आधार पर इसका अर्थ होगा- वह प्रदीप्त आकाश जैसा लग रहा था ।
चूर्णिकार ने इसका अर्थ भिन्न प्रकार से किया है । वह पर्वत ऐसा लग रहा था जैसे रात्रि में खदिर के अंगारे उसके दोनों पावों में प्रज्वलित हो रहे हों।"
श्लोक १३:
५३. भूमि के मध्य में (महीए मज्झम्मि)
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इसका अर्थ है -जंम्बूद्वीप के मध्य में अवस्थित ।
५४. सूर्य के समान तेजस्वी ( सूरियसुद्धले से)
वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-सूर्य के समान विशुद्ध तेज वाला अर्थात् सूर्य के समान तेजस्वी । " चूर्णिकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है— हेमन्त ऋतु में तत्काल उदित सूर्य की लेश्या - वर्ण वाला । "
१. चूर्ण, पृ० १४६ : मट्ठ ेति 'अट्ठ े (अच्छे ) सण्हे लहे जाव पडिरूवे' (जीवा० प्रति० ३ उ० १ सू० १२४ पत्र १७७-२ ), ण फरस - फासो विसमो वा इत्यर्थः ।
२. आप्टे, संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी
वर्ण:- Look, Countenance । मध्यस्थवर्ण इव दृश्यते मध्यमव्यायोग ?
३. चूर्ण, पृ० १४६ : दु:खं गम्यत इति दुर्ग:, अनतिशयवद्भिनं शक्यते आरोढम् ।
४. वृत्ति पत्र १४६ पर्वभिः मेखलादिनिष्ट्राप
५. वृत्ति, पत्र १४७ : असौ मणिभिरौषधीभिश्च देदीप्यमानतया 'भौम इव' भूदेश इव ज्वलित इति ।
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६. वृत्ति, पत्र १४७ : भौम इव भूदेश इव ।
७. पद्मचन्द्रकोष पृ० ३६५ : भौम- आकाश 1
८.
चूणि, पृ० १४६ : जधाणामए खइरिगालाणं रति पज्जलिताणं, अधवा जधा पासातो पज्जलितो के पि पचतो वा अड्ढरते ।
६. जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति ४।२१२ : मंदरे णाम पव्वए" १०. वृत्ति, पत्र १४७ : सूर्यवत्शुद्धलेश्य:- -आदित्यसमानतेजाः ।
।
११. चूर्ण, पृ० १४६ : सूरियलेस्सभूते ति ज्ञायते अतिदग्गयहेमंतिसूरियलेस्सभूतो यदि मध्याह्लार्कलेश्यामतोऽभविष्यत् तेन दुरासओ
ऽभविष्यत् ।
"जंबुद्दीवस्स बहुमज्भदे सभाए
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