________________
सूधगडो १
___३०१
अध्ययन ६ : टिप्पण ५५-५६ नाना वर्णवाला (भूरिवणे) मेरु पर्वत नाना वर्ण वाला है क्योंकि वह अनेक वर्ण के रत्नों से सुशोभित है।' चूर्णिकार ने भूतिवण्णे पाठ मान कर उसका अर्थ-प्रभूत वर्ण वाला दिया है ।'
श्लोक १४: ५५. यश (जसो)
जो प्रसिद्धि सर्व लोक में प्रसृत होती है, उसे यश कहा जाता है, यह चूर्णिकार का अभिमत है।'
दशवकालिक ६।४ में कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक-ये चार शब्द प्रसिद्धि की विभिन्न अवस्थाओं को स्पष्ट करने के लिए प्रयुक्त हुए हैं।
कीर्ति-सर्व दिग्व्यापी प्रशंसा । वर्ण-एक दिग्व्यापी प्रशंसा । शब्द-अर्द्ध दिग्व्यापी प्रशंसा । श्लोक- स्थानीय प्रशंसा । विशेष विवरण के लिए देखें-दसवेआलियं ९।४ का १८ वां टिप्पण । जाती-जसो..........
इस चरण में पांच शब्द हैं-जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील । भगवान् महावीर समस्त जाति वालों में, यशस्वियों में, दर्शन और ज्ञान वालों में तथा शीलवानों में श्रेष्ठ हैं । यह चूणि और वृत्ति की व्याख्या है।'
श्लोक १५:
५६. लंबे पर्वतों में निषध (णिसढायताणं)
यहां दो पद हैं-णिसढे, आयताणं । इन दो पदों में संधि होने पर यह रूप निष्पन्न हुआ है-णिसढायताणं ।
जंबूद्वीप अथवा दूसरे द्वीपों के लंबे पर्वतों में 'निषध' सबसे अधिक लंबा पर्वत है।' सत्यप्रज्ञ (भूतिपण्णे)
वृत्तिकार ने इसका अर्थ --- प्रभूत ज्ञान वाला, प्रज्ञाश्रेष्ठ किया है। चूर्णिकार ने 'भूतपण्णे' पाठ की व्याख्या की है-भूता
प्रज्ञा यस्य जगत्यसावेको भूतप्रज्ञः । देखें-छठे श्लोक के 'भूइपण्णे' का टिप्पण। १. वृत्ति, पत्र १४७ : भूरिवर्णः अनेकवर्णा अनेकवर्णरत्नोपशोभितत्वात् । २. चूणि, पृ० १४६ : भूतिवर्ण इति प्रभूतवर्ण इत्यर्थः । ३. चूणि, पृ० १४६ : यशः प्रतीतः सर्वलोकप्रकाशः। ४. (क) चूणि, पृ० १४६ : जात्या सर्वजातिभ्यः, यशसा सर्वयशस्विभ्यः, दर्शनेन सर्वदृष्टिभ्यः, ज्ञानेन सर्वज्ञानिभ्यः, शीलेन सर्व
शोलेभ्य एवं भावात् । (ख) वृत्ति, पत्र १४५ : स च जात्या सर्वजातिमद्भ्यो यशसा अशेषयशस्विभ्यो दर्शनज्ञानाभ्यां सकलदर्शनज्ञानिभ्यः शीलेन समस्त
शोलवद्भ्यः श्रेष्ठः-प्रथानः । ५. (क) चूणि, पृ० १४६ : न हि कश्चित् तस्मादायततमो वर्षधरोऽन्प इह वाऽन्येषु वा द्वीपेषु ।
(ख) वृत्ति, पत्र १४७ : "निषधो' गिरिवरो गिरीणामायतानां मध्ये जम्बूद्वीपे अन्येषु वा द्वीपेषु दैये 'श्रेष्ठः' प्रधानः । ६. वृत्ति, पत्र १४७,१४८ : भूतिप्रज्ञ:-प्रभूतज्ञानः प्रज्ञया श्रेष्ठ इत्यर्थः । ७. चूर्णि, पृ. १४६ ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org