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________________ सूयगडो १ ३०२ अध्ययन ६ : टिप्पण ५७-५८ गोल पर्वतों में (वलयायतानां) 'वलयायताणं' यह पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है। आदर्शों में यही पाठ उपलब्ध है। वृत्ति में यही व्याख्यात है, जैसे—'स हि रुचकद्वीपान्तर्वर्ती मानुषोत्तरपर्वत इव वृत्तायत: संख्येयजोजनानि परीक्षेपेणेति ।" चूणि में रुचक पर्वत को केवल वृत्त बतलाया गया है-'स हि रुयगस्स दीवस्स बहुमज्झदेसभागे माणुसुत्तरइव वट्टे वलयागारसंठिते असंखेज्जाइं जोयणाई परिक्खेवेणं । यह चूणि की व्याख्या उचित प्रतीत होती है। आदर्शों में लिपिकर्ताओं के द्वारा पाठ का परिवर्तन हुआ है। प्राचीन लिपि में दीर्घ ईकार की मात्रा नाममात्र की-सी होती थी। प्राचीन लिपि के 'गतीणं' को 'गताणं' भी पढ़ा जा सकता है। 'वलयायतीणं' पाठ की संभावना की जा सकती है। लिपिकाल में ईकार का आकार होने पर 'वलयायताणं' पाठ हो गया। 'वलयायतीणं' (सं० वलयाकृतीनां) पाठ की संभावना आधारशून्य नहीं है। आकृति शब्द का आकिति, आकति, और 'क' का लोप करने पर आयति रूप बन सकता है । चूणि का 'वलयागारसंठिते' पाठ में प्रयुक्त आगार शब्द भी आकृति का ही वाचक है । इसलिए यह पाठ 'वलयायतीणं' ही होना चाहिए । ५७. ज्ञातपुत्र प्राज्ञ मुनियों में श्रेष्ठ हैं (मुणीण मज्झे तमुबाहु पण्णे) इस पाठ के स्थान पर चूर्णिकार ने 'मुणीणमावेदमुदाहु' पाठ की व्याख्या की है। उसका तात्पर्य है-प्रज्ञ महावीर ने मुनियों के लिए आवेद (श्रु तज्ञान) का निरूपण किया है।' चूर्णिकार और वृत्तिकार ने प्रज्ञ का अर्थ-प्रकृष्ट ज्ञानी किया है।' श्लोक १६: ५८. (अणुत्तरं झाणवरं झियाइ........... वदातसुक्कं) भगवान् ने शुक्लध्यान के द्वारा कैवल्य प्राप्त किया। उसे प्राप्त कर वे आत्मानुभव की चरम सीमा पर पहुंच गए। फिर उनके लिए ध्यान अपेक्षित नहीं रहा। निर्वाण के समय स्थूल और सूक्ष्म-दोनों शरीरों से मुक्त होने के लिए उन्होंने अनुत्तर शुक्लध्यान का प्रयोग किया। पहले चरण में क्रिया को सूक्ष्म किया और दूसरे चरण में उसका उच्छेद कर डाला। इस प्रकार वे सर्वथा अक्रिय होकर मुक्त हो गए। साधना-काल में शुक्ल-ध्यान होता है। निर्वाण-काल में परम शुक्ल-ध्यान होता है। इसीलिए उसे 'सुशुक्ल-शुक्ल' कहा गया है । उसे जलफेन, शंख और चन्द्रमा से उपमित किया है। चूर्णिकार ने अपगंड शब्द का अर्थ-शरद् ऋतु में नदी के प्रपात में उठने वाले जल-फेन किया है। वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-(१) विजातीय द्रव्य से रहित, निर्दोष, अर्जुन सुवर्ण की भांति निर्मल । (२) जल-फेन ।' चूर्णिकार ने अवदात के तीन अर्थ किए हैं-अतिश्वेत, स्निग्ध और निर्मल ।' १. वृत्ति, पत्र १४७ । २. चूणि, पृ० १४६ । ३. चूणि, पृ० १४६ : आवेदयन्ति तेनेति आवेदः, यावद् वेद्य तावद् वेदयतीति आवेदः, श्रुतज्ञानमित्यर्थः । ४. (क) चूर्णि, पृ० १४६ : पण्णे प्रगतो ज्ञः प्रज्ञः। (ख) वृत्ति, पत्र १४८ : अपरमुनीनां मध्ये प्रकर्षेण जानातीति प्रज्ञः। ५. (क) चूणि पृ० १४७ । (ख) वृत्ति, पत्र १४८ । ६. चूणि पृ० १४७ : यथा अपगंडं अपां गंडं अपगंड, उदकफेनवदित्यर्थः, शरन्नदीप्रपातोत्थं अपेव । ७. वृत्ति पत्र १४८ : तथा अपगतं गण्डम् --अपद्रव्यं यस्य तदपगण्डं निर्दोषार्जुनसुवर्णवत् शुक्लं यदि वा-अपगण्डम्-उदकफेनं तत्तुल्यमिति भावः। ८. चूणि, पृ० १४७ : अवदातं अतिपण्डरं स्निग्धं वा निमल । Jain Education Intemational ation Intermational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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