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दसमं अज्झयणं : दसवां अध्ययन
समाही : समाधि
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
१.आघं मइमं अणुवीइ धम्म अंजु समाहि तमिणं सुणेह। अपडिपणे भिक्खू समाहिपत्ते अणिदाणभूते सुपरिव्वएज्जा।
आख्यातवान मतिमान अनवीचि धर्म, ऋजं समाधि तमिमं शृणुत । अप्रतिज्ञो भिक्षः समाधिप्राप्तः, अनिदानभूतः सुपरिव्रजेत् ।।
१. मतिमान् (भगवान् महावीर) ने'
अनुचिन्तन' (ग्राहक की योग्यता को ध्यान में रख) कर ऋजु समाधि-धर्म का प्रतिपादन किया, वह तुम सुनो। समाधि-प्राप्त भिक्षु अमूच्छित और (हिंसा आदि) आश्रवों से मुक्त' रहकर सम्यक् परिव्रजन करे।
२. उड्ढं अहे यं तिरियं दिसासु
तसा य जे थावर जे य पाणा। हत्थेहि पादेहि य संजमित्ता अदिण्णमण्णेसु य णो गहेज्जा।
ऊर्ध्वमधश्च तिर्यगदिशासु, त्रसाश्च ये स्थावराः ये च प्राणाः । हस्तैः पादैश्च संयम्य, अदत्तमन्यैश्च नो गृह्णीयात् ।।
२. ऊंची, नीची और तिरछी दिशाओं में
जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनके प्रति हाथ और पैर का संयम करे।' गृहस्थ के द्वारा अदत्त वस्तु को न ले।
३. सुयक्खायधम्रो वितिगिच्छतिण्णे लाढे चरे आयतुले पयासु । आयं ण कुज्जा इह जीवियट्ठी चयं ण कुज्जा सुतवस्सि भिक्खू ॥
स्वाख्यातधर्मः विचिकित्सातीर्णः, लाढश्चरेत् आत्मतुलः प्रजासु । आयं न कुर्यात् इह जीवितार्थी, चयं न कुर्यात् सुतपस्वी भिक्षुः ।।
३. जिसका धर्म स्वाख्यात है', जो संदेहों
का पार पा चुका है, जो जैसा भोजन प्राप्त हो उसी में संतुष्ट रहता है," वह सुतपस्वी भिक्षु" प्राणीमात्र को आत्म-तुल्य समझता हुआ विचरण करे।" इस जीवन का अर्थी" होकर पदार्थों का अर्जन" और संचय न
करे।५
४.सविदियाभिणिन्वुडे पयासु
चरे मुणी सव्वओ विप्पमुक्के । पासाहि पाणे य पुढो विसणे दुक्खेण अट्टे परिपच्चमाणे॥
सर्वेन्द्रियाभिनिर्वतः प्रजासु, चरेद् मुनिः सर्वतो विप्रमुक्तः । पश्य प्राणांश्च पृथक् विषण्णान्, दुःखेन आर्त्तान् परिपच्यमानान् ।
५. एतेसु बाले य पकुव्वमाणे
आवडती कम्मसु पावएसु । अतिवाततो कीरति पावकम्म णि उंजमाणे उ करेइ कम्मं ॥
एतेष बालश्च प्रकुर्वन्, आवर्तते कर्मसु पापकेषु । अतिपाततः क्रियते पापकर्म, नियुञ्जानस्तु करोति कर्म।
४. मुनि स्त्रियों के प्रति सभी इन्द्रियों से
संयत" तथा सर्वथा बंधनमुक्त होकर रहे। पृथक्-पृथक् रूप से विषण्ण, दुःख से पीड़ित" और सताए जाते हुए प्राणियों को देखे । ५. अज्ञानी मनुष्य इन (दुःखी जीवों) में (वध आदि का प्रयोग) करता हुआ पाप-कर्मों के आवर्त में फंस जाता है। वह स्वयं प्राणों का अतिपात कर पापकर्म करता है और दूसरों को (प्राणों के अतिपात में) नियोजित करके भी पाप-कर्म करता है।
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