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________________ ४३० प्र०१०: समाधि: श्लोक ६-११ सूयगडा १ ६. आदीणवित्ती वि करेति पावं मंता हु एगंतसमाहिमाहु । बुद्धे समाहीय रए विवेगे पाणाइवाया विरते ठितप्पा॥ आदीनवृत्तिरपि करोति पापं, मत्वा खलु एकान्तसमाधिमाहुः । बुद्धः समाधौ रतो विवेके, प्राणातिपाताद् विरतः स्थितात्मा ॥ ६. दीनवृत्ति वाला भी पाप करता हैयह जानकर (भगवान् महावीर ने) ऐकान्तिक समाधि का उपदेश दिया।" (इस समाधि को) जानने वाला समाधि और विवेक में रत, हिंसा से विरत और स्थितात्मा होता है। ७. समूचे जगत् को समता की दृष्टि से देखने वाला किसी का भी प्रिय-अप्रिय न करे-मध्यस्थ रहे।" दीन (कायर) व्यक्ति५ (समाधि की साधना में) उठकर, फिर विषण्ण" हो, पूजा और श्लाघा की कामना करने लग जाता ७. सव्वं जगं तू समयाणुपेही पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा। उहाय दीणे तु पुणो विसण्णे संपूयणं चेव सिलोयकामी॥ सर्वं जगत्त समतानप्रेक्षी, प्रियमप्रियं कस्यापि नो कुर्यात् । उत्थाय दीनस्तु पुनर्विषण्णः, संपूजनं चैव श्लोककामी ॥ ८. आहाकडं चेव णिकाममीणे णिकामसारी य विसण्णमेसी। इत्थोसु सत्ते य पुढो य बाले परिग्गहं चेव पकुव्वमाणे॥ ९.वेराणगिद्धे णिचयं करेति इतो चुते से दुहमट्ठदुग्गं । तम्हा तु मेधावि समिक्ख धम्म चरे मुणी सव्वतो विप्पमुक्के । आधाकृतं चैव निकामयमानः, ८. अज्ञानी मुनि आधाकर्म" (मुनि के निकामसारी च विषण्णषी । निमित्त बने आहार) की कामना करता स्त्रीषु सक्तश्च पृथक् च बालः, है, उसकी गवेषणा करता है, परिग्रहं चैव प्रकुर्वन् ।। असंयम की एषणा करता है", स्त्रियों की अनेक प्रवृत्तियों में आसक्त होता है, परिग्रह का संचय करता है । ३२ वैरानगृद्धो निचयं करोति, ६. (परिग्रह-अर्जन के निमित्त) जन्मान्तइतश्च्युतः सः दुःखार्थदुर्गम् । रानुयायी वैर में गृद्ध हो" (पाप-कर्म तस्मात् तु मेधावी समीक्ष्य धर्म, का संचय" करता है। यहां से च्युत चरेद् मुनिः सर्वतो विप्रमुक्तः ॥ होकर वह विषम और दुःखप्रद स्थान को" प्राप्त होता है। इसलिए मेधावी मुनि"धर्म की समीक्षा कर, सब ओर से मुक्त हो, संयम की चर्या करे। १०.आयं ण कुज्जा इह जीवितट्ठी असज्जमाणो य परिव्वएज्जा। णिसम्मभासी य विणीयगिद्धो हिंसण्णितं वा ण कहं करेज्जा॥ आयं न कुर्यात् इह जीवितार्थी, असश्च परिव्रजेत् । निशम्यभाषी च विनीतगृद्धिः, हिंसान्वितां वा न कथां कुर्यात् ।। १०. इस जीवन का अर्थी होकर पदार्थों का अर्जन न करे, अनासक्त रह परिव्रजन करे । सोचकर बोलने वाला और आसक्ति से दूर रहने वाला हिंसायुक्त कथा न करे । ११.आहाकडं वाण णिकामएज्जा णिकामयंते य ण संथवेज्जा। धुणे उरालं अणवेक्खमाणे चेच्चाण सोयं अणुवेक्खमाणे॥ आधाकृतं वा न निकामयेत, निकामयतश्च न संस्तुयात् । धुनोयात् उदारं अनपेक्षमाणः, त्यक्त्वा स्रोतः अनुप्रेक्षमाणः ।। ११. आधाकर्म की कामना न करे । उसकी कामना करने वालों की प्रशंसा और समर्थन न करे ।” स्थूल शरीर की अपेक्षा न रखता हुआ" अनुप्रेक्षापूर्वक (असमाधि के) स्रोत को" छोड़, उसे (स्थूल शरीर को) कृश करे। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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