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सूयगडो १ १२. एगत्तमेवं अभिपत्थएज्जा
एतं पमोक्खे ण मुसं ति पास । एसप्पमोक्खे अमुसेऽवरे वी अकोहणे सच्चरए तवस्सी॥
अ० १० : समाधि : श्लोक १२-१८ एकत्वमेवं अभिप्रार्थयेत्, १२. एकत्व (अकेलेपन) की" अभ्यर्थना एष प्रमोक्षः न मषा इति पश्य । करे। यह एकत्व मोक्ष है।" यह एष प्रमोक्षः अमषा अवरोपि, मिथ्या नहीं है। इसे देख । (एकत्व में अक्रोधनः सत्यरतः तपस्वी ॥ रहने वाला पुरुष) मोक्ष, सत्य, प्रधान,
क्रोधमुक्त, सत्यरत" और तपस्वी होता
१३. इत्थीसु या आरयमेहुणे उ
परिग्गहं चेव अकुव्वमाणे। उच्चावएसु विसएसु ताई ण संसयं भिक्खु समाहिपत्ते ॥
स्त्रीष च आरतमैथनस्तु, परिग्रहं चैव अकुर्वन् । उच्चावचेष विषयेषु तादृग, न संश्रयन् भिक्षुः समाधिप्राप्तः ।।
१३. जो स्त्रियों के प्रति मैथुन से विरत है,
परिग्रह नहीं करता, नाना" विषयों में मध्यस्थ और उनका सेवन नहीं करने वाला" भिक्षु समाधि-प्राप्त होता
१४. अरति रति च अभिभूय भिक्खू तणादिफासं तह सीतफासं। उण्हं च दंसं चहियासएज्जा सुभि च दुभि व तितिक्खएज्जा॥
अरति रति च अभिभूय भिक्षः, तृणादि स्पर्श तथा शीतस्पर्शम् । उष्णं च दशं च अध्यासीत, सुरभि च दुरभि च तितिक्षेत ॥
१५. गुत्ते वईए य समाहिपत्ते
लेसं समाहट्ट परिव्वएज्जा। गिह ण छाए ण वि छादएज्जा सम्मिस्सिभावं पजहे पयासु ॥
गुप्तः वाचि च समाधिप्राप्तः, लेश्यां समाहृत्य परिव्रजेत् । गृहं न छादयेत् नापि छादयेत्, सम्मिश्रीभावं प्रजह्यात् प्रजासु ॥
१६. जे केइ लोगम्मि उ अकिरियाता
अण्णेण पुट्टा धुतमादिसति । आरंभसत्ता गढिया य लोए धम्म ण जाणंति विमोक्खहेउं ।
ये केचिद लोके तु अक्रियात्मानः, अन्येन पृष्टाः धुतमादिशन्ति । आरम्भसक्ताः ग्रथिताश्च लोके, धर्म न जानन्ति विमोक्षहेतुम् ।।
१४. भिक्षु अरति और रति को जीते,
तृण आदि तथा सर्दी के स्पर्श और गरमी तथा (मच्छर आदि के) दंश को सहे। सुगंध और दुर्गध में तितिक्षा
रखे। १५. भिक्षु वाणी से संयत' हो समाधि
प्राप्त बने, विशुद्ध लेश्या के साथ" परिव्रजन करे, स्वयं घर न छाए और दूसरों से न छवाए, गृहस्थों के साथ
एक स्थान में न रहे। १६. इस जगत् में जो अक्रियात्मवादी" हैं
वे दूसरों के पूछने पर धुत (समाधि की एक साधना-पद्धति) का उपदेश करते हैं। किन्तु वे आरंभ में रत और लोक में आसक्त होने के कारण मोक्ष के हेतुभूत (समाधि) धर्म को नहीं
जानते। १७. उन मनुष्यों के छन्द (अभिप्राय) नाना
प्रकार के होते हैं। क्रिया और अक्रिया--ये नाना वाद हैं। नवोत्पन्न शिशु का शरीर जैसे बढ़ता है वैसे ही असंयमी का वैर बढ़ता है।"
१७. तेसिं पुढो छंदा माणवाणं किरिया-अकिरियाण व पुढोवादं जातस्स बालस्स पकुव्व देहं पवड्ढती वेरमसंजयस्स ॥
तेषां पृथग्छंदा मानवानां, क्रिया-अक्रियाणां वा पृथग्वादः । जातस्य बालस्य प्रकुर्वन् देहं, प्रवर्धते
वरमसंयतस्य ।।
१८. आउक्खयं चेव अबुज्झमाणे
ममाइ से साहसकारि मंदे। अहो य राओ परितप्पमाणे अट्टे सुमूढे अजरामरे व्व ॥
आयुःक्षयं चैव अबुध्यमानः, ममायी स साहसकारी मन्दः । अहश्च रात्रौ परितप्यमानः, आतः सुमूढः अजरामर इव ।।
१८. आयु के क्षय को नहीं जानता हुआ __ ममत्वशील", सहसा (बिना सोचे
समझे) काम करने वाला मंद मनुष्य विषयों से पीड़ित और मोह से मूच्छित हो अजर-अमर की भांति आचरण करता हुआ दिन-रात संतप्त होता है।
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