SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 615
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगडो १ ६०. संयम (मोणं) मौन का अर्थ है - संयम । ६१. आचार्य (बुद्धा) ६२. जानकर (खाए ५७८ श्लोक १८ : यूर्णिकार ने इसका अर्थ 'बुद्धबोधित बचायें" और वृत्तिकार ने 'विकालवेदी' किया है।" इसका संस्कृत रूप है— संख्याय और अर्थ है- जानकर मुनि क्षेत्र, काल, परिषद् और अपने सामर्थ्य को भलीभांति जानकर धर्म का उपदेश देता है । अथवा गुरु यह भलीभांति जान ले कि अमुक शिष्य अमुक मात्रा में श्रुत के योग्य है, उससे आगे श्रुतग्रहण की शक्ति उसमें नहीं है । शक्ति के होने पर जितना वह पा सकता है उतना पा लिया- ऐसा जानकर अथवा यह शिष्य परंपरा या श्रुत को अविछिन्न रूप से चला सकता है - यह जानकर गुरु उसे धर्म कहता है ।" वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप ' संख्यया' देते हुए संख्या का अर्थ सद्बुद्धि किया है।" मुनि अपनी तथा श्रोतृवर्ग की शक्ति को जानकर, परिषद् की पूरी पहचान कर तथा प्रतिपाद्य अर्थ के तात्पर्य को भी प्रकार से जानकर फिर धर्म का प्रतिपादन करता है, यह वृत्तिकार का वैकल्पिक अर्थ है । ६३. (शिष्यों के संदेहों का) अंत करने वाले होते हैं (अंतकरा भवंति ) २. चूर्ण, पृ० २३३ [बुद्धा] बुद्धबोधितास्ते आचार्या । ३. वृत्ति, पत्र २५५ : बुद्धा: - कालत्रयवेदिनः । ४. चूर्ण, पृ० २३३ : Jain Education International अध्ययन १४ : टिप्पण ६०-६४ चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसका अर्थ- कर्मों का अंत करने वाला किया है । " पूरे श्लोक के सन्दर्भ में पूर्णिकार और प्रतिकार का अर्थ सम्यग् नहीं लगता । प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य यह है कि वे बहुश्रुत आचार्य अपने शिष्यों के मन में उत्पन्न होने वाले प्रश्नों और सन्देहों का सम्यग् समाधान देकर उन्हें समाहित करते हैं । शिष्य सन्देहों से मुक्त हो जाते हैं । ६४. भूत के पारगामी आचार्य (पारगा) धर्म की व्याख्या करते हुए वे आचार्य धर्म का पार पा जाते हैं, उसकी सूक्ष्मतम व्याख्या प्रस्तुत कर देते हैं । वे स्व पर संदेहों को दूर करने के लिए पार तक चले जाते हैं ।" १. (क) चूर्णि पृ० २३३ : मौनं संयमः । (ख) वृत्ति, पत्र २५४ : मौनं संयमः - आश्रवनिरोधरूपः । संखाए त्ति धर्मं ज्ञात्वा श्रुतं धर्मं वा कथयति, सिरसपछि गाणं धर्मकथा च कथयति । अथवा संख्यायेति खेतं कालं परिसं सामत्थं चप्पणो वियाणित्ता परिकथयति । अथवा के अयं पुरिसे ? कं च गये ?" अथवा संख्यायेति एतन्मात्रस्यार्थ भूतस्य योग्य, अतः परं शक्तिर्नास्ति सत्य या त जति प्रचरति सत्तिय हि एवं संख्याय । अन्वोच्छित्तिकरे त्ति एवमादिभिः प्रकारैः संख्याय धम्मं वागरयंता । ५. वृत्ति, पत्र २५५ : सम्यक् ख्यायते - परिज्ञायते यया सा संख्या- सद्बुद्धिस्तथा । ६. वृति, पत्र २५५ : यदि वा स्वपरशक्त परिज्ञाय पर्षदं वा प्रतिपाद्यं चार्थं सम्यगवबुध्य धर्मं प्रतिपादयन्ति । ७. (क) चूर्णि, पृ० २३३ : कम्माणं अंतं करेंतीति अंतकराः । (ख) वृत्ति, पत्र २५५ : जन्मान्तरसंचितानां कर्मणामन्तकरा भवन्ति । ८. चूणि, पृ० २३३ : धर्मं व्याकरयन्तः पारं गच्छतीति पारगाः, आत्मनः परस्य च दोन्ह वि विमोयणाए पारं गच्छति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy