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सूयगडो १
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अध्ययन १४ : टिप्पण ५३-५६ वृत्तिकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है१. मन, वचन और काया से । २. कृत, कारित और अनुमति से ।
चूर्णिकार का अर्थ प्रकरणानुसारी होने के कारण अधिक उपयुक्त लगता है। ५३. चित्त को शांति (संति)
इसका अर्थ है-शांति, सुख, सर्वकर्मशान्ति, समस्त द्वन्द्वों से उपरति ।' हमने इसका अर्थ-चित्त की शान्ति किया है। ५४. निरोध (णिरोधं)
निरोध का अर्थ है-कर्म-प्रवाह का रुकना । प्रत्येक प्राणी में निरंतर कर्म पुद्गलों का प्रवाह आता है । उसके आने का हेतु है-अशांति और उसके निरोध का हेतु है शान्ति ।
प्रस्तुत सूत्र के १।३।८० में शान्ति को निर्वाण (संति निव्वाणमाहियं) कहा है और यहां शान्ति को निरोध कहा है (संति णिरोधमाह) । शान्ति निर्वाण का हेतु है या शान्ति ही निर्वाण है । इसी प्रकार शान्ति निरोध का हेतु है या शान्ति ही निरोध है। ये दोनों अर्थ किए जा सकते हैं । ५५. त्रिलोकदर्शी तीर्थकर (तिलोगदंसी) - इसका अर्थ है ... तीन लोक को देखने वाला । चूर्णिकार ने-ज्ञान, दर्शन, और चारित्र-को तीन लोक माना है । उसको देखने वाला होता है-तीर्थंकर । उन्होने विकल्प में ऊंचा, नीचा और तिरछा लोक देखने वाला यह अर्थ किया है।' वृत्ति में यह वैकल्पिक अर्थ ही मिलता है।'
श्लोक १७:
५६. प्रतिभावान् (पडिमाण)
देखें-१३।१३ का ५५ वां टिप्पण। ५७. विशारद (विसारदे)
देखें-१३॥१३ का ५६ वां टिप्पण। ५८. आदान (ज्ञानादि) का अर्थी बना हुआ (आवाणमट्टी)
आदान का अर्थ है-ज्ञान आदि ।' यहां मकार अलाक्षणिक है। ५९. तपस्या (वोदाण)
चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसका अर्थ तप किया है। स्थानांग (३३१४८) के अनुसार व्यवदान तप नहीं है वह तपस्या का फल है । तप और तप के फल में अभेदोपचार कर तप के अर्थ में व्यवदान शब्द का प्रयोग किया है। १. वृत्ति, पत्र २५४ : त्रिविधेनेति मनोवाक्कायकर्मभिः कृतकारितानुमतिभिर्वा । २ चूणि, पृ० २३३ : शान्तिर्भवति, हहान्यत्र च सौख्यमित्यर्थः सर्वकर्मशान्तिर्वा । ३.णि पृ० २३३ : ते तीर्थकराः, ज्ञान-दर्शन-चारित्राख्यास्त्रीन लोकान् पश्यतीति त्रिलोकशिनः, ऊर्धादि वा त्रिलोकं पश्यति । ४. वृत्ति, पत्र २५४ : त्रिलोकम्-अधिस्तिर्यगलक्षणं द्रष्टुं शीलं येषां ते त्रिलोकशिनः तीर्थकृतः सर्वशाः । ५. (क) चूणि, पृ० २३३ : आदीयत इत्यादानम ज्ञानादीनि आदानानि ।
(ख) वृत्ति, प० २५३ : मोक्षार्थिनाऽऽदीयत इत्यादानं-सम्यग्ज्ञानादिकम् । ६. (क) चूणि, पृ० २३३ : बोवानं विदारणं तपः।
(ख) वृत्ति, पत्र २५४ : व्यवदानं द्वादशप्रकारं तपः ।
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