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सूयगडो
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प्रध्ययन १४ : टिप्पण ४८-५२ ४८. प्रकम्पित न हो (अविकंपमाणे)
वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'संयम से अविचलित रहता हुआ' किया है।' चूणिकार ने 'अविकप्पमाणे' पाठ मानकर इसका अर्थ 'विविध कल्पना न करता हुआ' किया है।'
श्लोक १५ :
४६. विनयावनत हो (समियं)
इसके संस्कृत रूप दो हो सकते हैं-समितं, सम्यक् । चूर्णिकार ने सम्यक् का अर्थ तीन प्रकार की पर्युपासना (कायिकी, वाचिकी और मानसिको) किया है।' ५०. ग्रहण करे (सोयकारी)
चूर्णिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं'१. ग्रहण करने वाला। २. श्रोत्र से ग्रहण कर हृदय में धारण करने वाला। ३. सुनकर करने वाला।
वृत्तिकार ने इसका अर्थ यथोपदेशविधायी-आज्ञा का पालन करने वाला किया है।' ५१. विस्तार से अपने हृदय में स्थापित करे (पुढो पवेसे)
इस वाक्य में निर्देश दिया गया है कि धर्म के उपदेश का पृथक्-पृथक् या बार-बार पुनरावर्तन करे। बार-बार पुनरावर्तित विद्या हजार गुनी हो जाती है । इसका तात्पर्य है, केवल सुने नहीं, किन्तु सुने हुए तत्त्व पर चिन्तन और मनन करे।
इस वाक्य का दूसरा अर्थ होता है- जो धर्म का उपदेश मिले उसे भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से स्वीकार करे। सब तत्त्वों को एक ही दृष्टि से देखने पर यथार्थ का बोध नहीं होता । उत्सर्ग सूत्र को उत्सर्ग की दृष्टि से, अपवाद सूत्र को अपवाद की दृष्टि से देखे। इसी प्रकार स्व-समय को स्व-समय की दृष्टि से और पर-समय को पर-समय की दृष्टि से देखे । भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से देखा हुआ सत्य चित्त में समाधि उत्पन्न करता है।'
श्लोक १६: ५२. धर्म, समाधि और मार्ग की (तिविहेण)
चूणिकार ने इसका अर्थ दो प्रकार से किया है१. समिति, गुप्ति और अप्रमाद- इन तीनों से ।
२. धर्म, समाधि और मार्ग-इन तीनों से (नौंवे, दसवें और ग्यारहवें अध्ययन के ये नाम हैं)। १. वृत्ति, पत्न २५३ : अविकम्पमानः-संयमावचलन् । २. चूणि, पृ० २३२ : विविधं कप्पयति विकप्पमाणो। ३. चूणि, पृ० २३२ : सम्यगिति तिविधाए पज्जुवासणताए। ४ चूणि, पृ० २३२ : श्रोतसि करोतीति श्रोतःकारी ग्रहीतेत्यर्थः गृह णाति । अथवा श्रोत्रेण गृहीत्वा हृदि करोतीति श्रोतःकारी, श्रुत्वा
वा करोतीति श्रोतःकारी। ५. वृत्ति, पत्र २५४ : श्रोत्रे-कणे कर्तुं शीलमस्य श्रोतकारी-ययोपदेशकारी आज्ञाविधायी। ६. चूणि, पृ० २३२, २३३ : पुढो पवेसे त्ति पृथक पृथक पुणो पुणो वा पवेसे हृदयं पुढो पवेसे, सहनगुणिता विद्या शतशः परिवर्तिताः।'
पत्तेयं वा पत्तेयं पवेसे पुढो पवेसे, तं जधा-उस्सग्गे उस्सग्गं अववाते अववातं, एवं ससमये ससमयं परसमये
परसमयं वा, अतिक्रान्ते अतिक्रान्तकालम् । ७. चूणि, पृ० २३३ : समिति-गुप्स्यप्रमादेषु धर्म-समाधि-मार्गेषु च ।
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