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________________ सूयगडो १ ५७५ प्रध्ययन १४ : टिप्पण ४३-४७ श्लोक १२: ४३. (मग्गंण.........) एक अटवी है । वह गढ़ों, पत्थरों, कन्दराओं तथा वृक्षों से दुर्गम है । ऐसी अटवी से प्रतिदिन आने-जाने के कारण कोई व्यक्ति उसकी पगडंडियों से परिचित हो जाता है। किन्तु वह भी उस अटवी में अंधकार के कारण पूर्व परिचित पगडंडियों को भी नहीं देख पाता। श्लोक १३: ४४. अपुष्ट धर्मवाला (अपुट्ठधम्मे) चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'अदृष्टधर्मा' किया है ।' संभव है उनके सामने 'अदिट्ठधम्मे' पाठ रहा हो । देखें-तीसरे श्लोक का ७ वां टिप्पण। . ४५. धर्म को (धम्म) चूर्णिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं--प्रवृत्ति-निवृत्ति प्रधान धर्म, चारित्र धर्म अथवा अप्रमाद धर्म ।' ४६. ज्ञानी (कोविए) चूर्णिकार के अनुसार कोविद का अर्थ है-ज्ञानी । जो ग्रहण शिक्षा में निपुण होता है, वह जान लेता है कि उसे कैसा आचरण करना चाहिए और कैसा आचरण नहीं करना चाहिए।" जो व्यक्ति सर्वज्ञप्रणीत आगमों के अनुसार वर्तन करने में निपुण होता है वह कोविद कहलाता है, यह वृत्तिकार का अर्थ है।' श्लोक १४: ४७. (उड्ढं अहे......) हिंसा की व्याख्या चार दृष्टियों से की जाती है-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । दिशा-यह क्षेत्रीय दृष्टिकोण है। त्रस या स्थावर-यह द्रव्य संबंधी दृष्टिकोण है। सदा- यह काल संबंधी दृष्टिकोण है । मानसिक प्रद्वेष का अभाव-यह भावात्मक दृष्टिकोण है। इन चारों दृष्टिकोणों से हिंसा की समग्रता समझी जा सकती है।' १ चूणि, पृ० २३२ : अन्धं करोतीति अन्धकारः मेघान्धकारं अचन्द्रा वा रात्रिः, अडवी या गर्ता-पाषाण-वरी-वृक्षदुर्गमा, से तस्यां पूर्वदृष्टमपि दण्डकपयं न पश्यति । २ चूणि, पृ० २३२ : अपुट्ठधम्मो णाम अष्टधर्मा। ३. चूणि, पृ० २३२ । धम्म ... प्रवृत्ति-निवृत्तिलक्षणं धर्म ज्ञानादि-प्राणातिपातादिषु यथासंख्यं, अथवा चारित्रधर्म अप्रमावधर्म वा। ४. चूणि, पृ० २३२ : कोवितो णाम विपश्चित्कृतः गहणसिक्खाए कोवितो, आसेवितव्वं च ग्रहणशिक्षया ज्ञायते । ५. वृत्ति, पत्र २५३ : कोविवः अभ्यस्तसर्वशप्रणीतागमत्वान्निपुणः। ६. (क) चूणि, पृ० २३२ : उड्ढं अधेयं ति खेत्तपाणातिवातो । जे थावरा जे य तसा दम्बपाणादिवादो। सदा जतो त्ति कालप्राणाति पातः । तसि परक्कमंतो मणप्पयोसं अविकंपमाणे ति भावपाणातिवातो। (ख) वृत्ति, पक्ष २५३ : Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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