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________________ सूयगडो १ ५७६ अव्ययन १४ : टिप्पण ६५-६७ वे आचार्य संसार समुद्र का पार पा जाते हैं यह वृत्तिकार का अर्थ है।' ६५. संशोधित प्रश्न की व्याख्या करते हैं (संसोधियं पण्हमुदाहरंति) वे आचार्य संशोधित प्रश्न की व्याख्या करते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि धर्म-प्रवचन करने से पूर्व या किसी के प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व आचार्य अपनी बुद्धि से यह सम्यक् पर्यालोचन कर लेते हैं कि सुनने वाली परिषद् किस मान्यता को स्वीकार करने वाली है, प्रश्नकर्ता किस दर्शन का अनुयायी है, यह किस अर्थ को ग्रहण करने में समर्थ है अथवा मैं स्वयं किस अर्थ की अभिव्यक्ति अच्छे प्रकार से कर सकता है । इस प्रकार अनेक पहलुओं से सम्यक् परीक्षा कर फिर वह धर्म-प्रवचन करता है या प्रश्न का उत्तर देता है। अथवा एक व्यक्ति कोई प्रश्न पूछता है तो यह आवश्यक है कि उत्तरदाता उस प्रश्न की सम्यग् परीक्षा कर फिर उचित उत्तर दे। चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-- पूर्वापर की समीक्षा कर, अपनी या पराई शक्ति को जानकर, द्रव्य-गुण और पर्यायों को जानकर, सूत्र से परिचित होकर जो उत्तर दिया जाता है वह है संशोधित प्रश्न का उदाहरण । अच्छिद्र प्रश्न (गूढ प्रश्न) का व्याकरण करने वाले अ-केवली हों या केवली रत्नकरंडक के समान तथा कुत्रिकापण (वह दुकान जहां तीन लोक की सारी वस्तुएं विक्रय के लिए उपलब्ध हों) तुल्य होते हैं। वे तथा चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी और नौपूर्वी यावत् दशवकालिक सूत्र के अध्येता धर्म की प्रज्ञा को अविच्छिन्न करते हैं।' श्लोक १६ : ६६. अर्थ को न छिपाए (णो छादए) अर्थ को छिपाने के तीन कारण हो सकते हैं :१. मात्सर्य- इस कारण से व्यक्ति अर्थ को छिपा लेता है। २. कभी-कभी धर्म को कथा करने वाला भी स्वार्थ के वशीभूत हो यथार्थ को छिपा लेता है। ३. अहंकारवश अपने वाचनाचार्य का नाम छिपा लेता है।' ६७. अप-सिद्धान्त का निरूपण (लूसएज्जा) चूणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१ वत्ति, पत्र २५५ : संसारसमुद्रस्य पारगा भवन्ति । २. वृत्ति, पत्र २५५ : सम्यक शोधितं-पूर्वोत्तराविरुद्धं प्रश्नं-शब्दमुदाहरन्ति, तथाहि-पूर्व बुद्धया पर्यालोच्य कोऽयं पुरुषः कस्य चार्थ स्य ग्रहणसमर्थोऽयं वा किंभूतार्थप्रतिपादनशक्त इत्येवं सम्यक परीक्ष्य व्याकुर्यादिति अथवा परेण कञ्चिदर्थ पृष्ट स्तं प्रश्नं सम्यक परीक्ष्योबाहरेत्-सम्यगुत्तरं दद्यादिति : ३ चूणि, पृ० २३३, २३४ : जं संसोधिगा पण्हमुदाहरंति सम्यक् समस्तं वा सोधिया संसोधिया, पृच्छति तमिति प्रश्नः, पूर्वापरेण समी क्षितुं आत्मपरशक्ति च ज्ञात्वा द्रव्यादीनि च तथा “केऽयं पुरिसे" ति परिचितं च सुतं कातण'आयरियादेसा धारितेण अत्येण [गुणिय] सरितेणं । तो संघमझयारे बवहरितुं जे सुहं होति ।' (व्यवहार उ० ३, भाष्य गाथा ३५९) अच्छिद्दपसिण-वागरणा अकेवली केवली वा, रयणकरंडगसमाणा कुत्तियावणभूता तथा चोद्दस-दस-णवपुष्वी जाव बसकालिय ति संसाधितुं अवोच्छिन्नं करेति । ४. (क) चूणि, पृ० २३४ : मत्रारित्वेनाथ नो छादयेत्, पात्रस्य धर्मस्य कथां कथयन् न सद्भुतगुणान् छादयेत्, न वा वायणायरिय छादयेत् । (ख) वृत्ति, पत्र २५५ : सूत्रार्थ 'न छादयेत्'- नान्यथा व्याख्यानयेत् स्वाचार्य वा नापलपेत् धर्मकयां वा कुर्वन्नाथ छादयेद आत्मगुणोत्कर्षाभिप्रायेण वा परगुणान्न छादयेत् । ५. चूणि, पृ० २३४ : लूसिता णाम अवसिद्धान्तं कथयति सिद्धान्तविरुद्धं वा । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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