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सूयगडो १
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अध्ययन १४ : टिप्पण ६०-७०
१. अपसिद्धान्त का प्रतिपादन । २. सिद्धान्त-विरुद्ध तत्त्व का प्रतिपादन । वृत्तिकार ने ये दो अर्थ किए हैं१. दूसरों के गुणों की विडंबना ।
२. अपसिद्धान्त का प्रतिपादन । ६८. न अभिमान करे, न अपना ख्यापन करे (माणं ण सेवेज्ज पगासणं च)
अपनी प्रज्ञा का, स्वयं के आचार्य होने का, अपने तथा दूसरों के संदेहों का अपनयन करने का मद हो सकता है । इसलिए उसका निषेध किया गया है।
'मैं समस्त शास्त्रों का जानकार हं। सारे लोक में मेरी प्रसिद्धि है । मैं सभी प्रकार के संशयों को दूर करने में समर्थ हूं । मेरे जैसा हेतु और युक्ति के द्वारा तत्त्वों का प्रतिपादन करने वाला दूसरा नहीं है'-इस प्रकार अभिमान न करे ।
आत्मप्रकाशन अभिमान का ही एक पहलू है । इसके द्वारा अपना उत्कर्ष प्रदर्शित करने का प्रयत्न होता है।
मैं बहुश्रुत और तपस्वी हूं, मैं आचार्य हूं, मैं धर्मकथी हूं - इस प्रकार के आत्म-ख्यापन का निषेध किया गया है।' ६६. परिहास (परिहास)
यह विभक्तिरहित प्रयोग है । यहां 'परिहासं' होना चाहिए था।
परिहास का अर्थ है-हंसी, मजाक । चूर्णिकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है-मुनि ऐसी धर्मकथा न करे जिससे सुनने वालों को तथा स्वयं को हंसी आए । अथवा धर्मकथा करने पर सुनने वाले उसके हार्द को न समझ सकें या अन्यथा समझें, तो भी अपने प्रज्ञामद के कारण उनका परिहास न करे, हंसी न करे।' ७०. आशीर्वचन (प्रशस्तिवचन) (आसिसावाद)
आसिसावाद-यह विभक्तिरहित प्रयोग है।
किसी व्यक्ति द्वारा वंदना करने पर या दान आदि देने पर मुनि संतुष्ट होकर उसे आशीर्वचन देते हुए ऐसा न कहे-स्वस्थ रहो, भाग्यशाली हो, पुत्रों की प्राप्ति हो, धन बढ़े आदि आदि ।
इसका पाठान्तर 'ण यासियावाय' मिलता है । इस आधार पर डा० ए० एन० उपाध्ये ने असियावाय का अर्थ किया थाअस्याद्वाद । उन्होंने टीकाकार के 'आशीर्वाद' अर्थ की आलोचना की है। यदि वे मूल पाठ और टीका के सम्बन्ध में विचार करते तो ऐसा नहीं होता। चूर्णिकार और वृत्तिकार के सामने 'आसिसावाय' पाठ था और इसके आधार पर उन्होंने इसका अर्थ आशीर्वाद किया था। चूर्णि और वृत्ति में 'असियावाय' का पाठान्तर के रूप में भी उल्लेख नहीं है।' १ वृत्ति, पत्र २५५ : परगुणाग्न लषयेद्-4 विडम्बयेत् शास्त्रार्थ वा नापसिद्धान्तेन व्याख्यानयेत् । २. (क) चूणि, पृ० २३४ : प्रज्ञामानमाचार्यमानं वा संशयान् वाऽऽत्मनः परस्य वा छेत्तुं न मदं कुर्यात् । न वा प्रकाशयेदात्मानम् यथा
हमाचार्यः कथको बहुश्रुतो वा। (ख) वृत्ति, पत्र २५५ : तथा समस्तशास्त्रवेत्ताऽहं सर्वलोकविदितः समस्तसंशयापनेता, न मत्तुल्यो हेतुयुक्तिभिरर्थप्रतिपादयितेत्येव
मात्मकं मानम्-अभिमानं गर्व न सेवेत, नाप्यात्मनो बहुश्रुतस्वेन तपस्वित्वेन वा प्रकाशनं कुर्यात्, च शब्दा
वन्यदपि पूजासत्कारादिकं परिहरेत् । ३. चूणि, पृ० २३४ : प्रज्ञावान् प्रामः न चेदशी कयां कथयेद येन श्रोतुरात्मनो वा हास्यमुत्पद्यते, अपरियच्छते वा परे अण्णधा वा
बुज्झमाणे न प्रज्ञामदेन परिहासं कुर्यात् "यथा राजा तथा प्रजा" इति कृत्वा न सर्वत्रैव परिहासः । ४. (क) चणि, पृ० २३४ : "शंसु स्तुतौ" तस्य आशीर्भवति, स्तुतिवादमित्यर्थः न तद्दान-वन्दनादिभिस्तोषितो ब्रूयाद्-आरोग्यमस्तु
तेवी
ते दोघं चाऽऽयुः, तथा सुभगा भवाष्टपुत्रा, इत्येवमादीनि न व्याकरेत् । एवं वाक्समितः स्यात् । (ख) वृत्ति, पत्र २५५ तथा नापि चाशीर्वादं बहुपुत्रो बहुधनो [बहुधर्मो] दीर्घायुस्त्वं भूया इत्यादि व्यागृणीयात्, भाषासमिति
युक्तन माध्यमिति।
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