SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 618
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगडो १ ७१. मन्त्र पद के द्वारा ( मंतपण ) ७२. संयम जीवन का (गोयं) चूर्णिकार ने मंत्र का मुख्य अर्थ - सामान्य वचन और वैकल्पिक अर्थ - विद्या, मंत्र आदि किया है । ' वृत्तिकार के अनुसार इसके दो अर्थ हैं—विद्या और राजा आदि के साथ गुप्त मंत्रणा ।' चूर्णिकार ने इसके चार अर्थ किए हैं १. सतरह प्रकार का संयम । २. अठारह हजार शीलांग । ३. छह जीवनिकाय । ४. जीवन । वृतिकार ने इसके दो अर्थ किए है १. मौन - वाक्संयम । २. प्राणियों का जीवन | ७३. निर्वाह . ( विहे ) ७४. साधु धर्मों का ( असाधम्माणि ) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-पंथम से बाहर निकलना या संयम को गाल देना, नष्ट कर देना ।" वृत्तिकार ने भी दो अर्थ किए हैं-संयम को निःसार करना या जीवों को मारना । चूर्णिकार के अनुसार असाधु धर्म तीन प्रकार का होता हैं १. दर्प, मद, अहंकार आदि असाधु धर्म | २. पचन - पाचन आदि सावद्य कर्म । ३. असंयत दान तथा कुतीर्थिक आदि की प्रशंसा । Jain Education International ५८१ श्लोक २० : वृत्तिकार ने भी असाधु धर्म के तीन निर्देश दिए हैं १. वस्तुओं का दान - तर्पण आदि । २. साधु धर्म कहने वालों का अनुमोदन । ३. धर्मकया या व्याख्यान करते हुए आत्मश्लावा या कीर्ति की इच्छा । १. चूर्ण, पृ० २. २३४ : मन्यत इति मन्त्रः वचनम्, मन्त्र एवं पदं मन्त्रपवम् । अथवा मन्त्रा इति विद्या मन्त्रादयो गृह्यन्ते । २५६ जपदेन विज्ञापमान विधिना यदि वा 'मन' - राजादिगुप्तभावणपदेन । वृत्ति, पत्र : मन्त्रपवेन - 'मन्त्रपवेन' ३. चूर्ण, पृ० २३४ ४. वृत्ति, पत्र २५६ ५. ० २३४ ६. वृत्ति पत्र २५६ ७. घृणि, पृ० २३४ अध्ययन १४ टिप्पण ७१-७४ : : ..... : गुप्यत इति गोत्रं संयमः सप्तदसविधः अष्टादश च शीलाङ्गसहस्राणि इति षट् काया वा गोत्रम् ... गोत्राद् जीवितादित्यर्थः । गास्त्रायत इति गोत्रं - मौनं वाक्संयमः ' .......यदि वा गोत्रं जन्तूनां जीवितम् । मे निर्मार्थः न वायि संयमं निर्माये। न निःसारं कुर्यात् मानयेत् । असाधूनां धर्माः तान् असाधुधर्मान् ण संठवेज्जा, ते च दर्प-मदाऽहङ्कारावयः, अथवा न तत् कथयेत् येन असाधुधर्माणां 'सन्धानं भवति पचन-पाचनादीनाम्, असंयतदानादि वा कुतीथिकान् वा प्रशंसति । वृति ०२५६ तथा कुत्सितानाम् असाधूनां धर्मान् वस्तुदानतर्पणादिकान् न संवदेत् न ब्रूयाद्यदि वा नासाधर्मान् ब्रुवन् संवावयेद्, अथवा धर्मकथां व्याख्यानं वा कुर्वन् प्रजास्वात्मश्लाघारूपां कीर्ति नेच्छेदिति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy