SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 619
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूर्यग ७५. निर्मल (अणाइले ) अनाविल का अर्थ है— निर्मल । जो मुनि लाभ आदि से निरपेक्ष होकर व्याख्यान देता है या धर्मकथा करता है वह अनाविल होता है।" चूर्णिकार ने 'अणाउले' मानकर व्याख्या की है कि मुनि धर्म देशना करता हुआ आतुर न हो अथवा किसी बात के लिए प्रेरित किए जाने पर आकुल-व्याकुल न हो। " ७६. पाप-धर्म (असा धर्म) की स्थापना करने वालों का परिहास न करे (हासं पि णो संधए पावधम्मे) ५८२ श्लोक २१: इस चरण की व्याख्या अनेक प्रकार से की गई है— १. मुनि पाप धर्मों की स्थापना करने वालों का परिहास न करे । २. हास्य में भी पाप-धर्म का संधान न करे - प्रतिपादन न करे, जैसे— इसको छेदो, भेदो । इसको खाओ । ऐसे प्रसन्न हाओ आदि । ७७. तटस्थ रहे (ओए) ३. हास्य द्वारा भी कुतीर्थिकों की प्रशंसा न करे । ४. मुनि कुप्रावचनिकों से मजाक करते हुए ऐसा वचन न कहे जिससे उनके मन में अमर्ष पैदा हो, जैसे 'अरे ! आपके व्रत तो बड़े अच्छे हैं। सोने के लिए मृदु शय्या, प्रातःकाल उठते ही अच्छे-अच्छे पेय, मध्यकाल में भोजन, अपरान्ह में पीने के लिए पानक, अर्धरात्रि में द्राक्षाखंड और शर्बत (शर्करा ) इस प्रकार सुविधापूर्वक जीवन यापन करते हुए भी आपको मोक्ष प्राप्ति हो जाती है । हंसी में भी दूसरों के दोषों की अभिव्यक्ति करना पाप कर्म के बंधन का हेतु होता है ऐसा समझकर मुनि हंसी में भी पापधर्मों का संधान न करे ।" आचारांग सूत्र में 'ओज' के दो अर्थ किए हैं १. अकेला । * २. पक्षपात शून्य । अध्ययन १४ टिप्पण ७०-७७ : Jain Education International प्रस्तुत प्रसंग में चूर्णिकार ने 'ओज' के दो अर्थ किए हैं-राग-द्वेष रहित, सत्य को विपरीत न करने वाला ।' वृत्तिकार ने इसका एक अर्थ अकिंचन किया है। सामान्यतः ओज का अर्थ है शारीरिक शक्ति । आयुर्वेद के ग्रन्थों में रस से लेकर शुक्र तक की धातुओं के पश्चात् होने वाले तेज को 'ओज' माना है ।" जैन आगमों में यह शब्द बहुधा प्रयुक्त है और विशेषतः यह मुनि के विशेषण के रूप में आता है। यह शब्द वीतरागता और आकिञ्चन्य का सूचक है । १. वृत्ति, पत्र २५६ व्याख्यानावसरे धर्मकथावसरे वाडनाविलो लाभादिनिरपेक्षो भवेत् । २०२३ ३. (क) चूर्ण, पृ० २३५ । (ख) वृति पत्र २५६ , ४. आया ५ / १२६, वृत्ति, पत्र २०६ : 'ओज:' एकोऽशेष मलकलङ्काङ्करहितः । ५ आया ६/१००, वृत्ति, पत्र २३१ 'ओज:' एको रागादिविरहात् । ६. ० २५ ओवेति राग-द्वेषरहित नवगंत सद्भूतम् । ७. वृति पत्र २५६ 'जो' राग-द्वेवरहितः सबाह्यान्तरप्रयागाद्वा निष्किनः । सुश्रुत 'रसादीनां कान्तानां धातूनां यत् परं तेजस्तत् तुओजः । गाउले ति न धर्म देशनो आरोभवति चोदितो वा आकुलव्याकुलीत 7 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy