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सूयगडो १
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अध्ययन १४ : टिप्पण ७८-८० ७८. सत्य कठोर होता है इसे जाने (तहियं फरसं वियाणे)
तथ्य अर्थात् सत्य । चूर्णिकार ने इसका अर्थ-संयम किया है। वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप में इसके तीन अर्थ किए हैंपरमार्थभूत, अकृत्रिम, अप्रतारक ।
___ परुष का अर्थ है- कठोर । चूर्णिकार ने इसका तात्पर्यार्थ संयम किया है।' वृत्तिकार ने मुख्य रूप से उस वचन को परुष माना है जो दूसरे के चित्त को विकृत करता है। उन्होंने इसका वैकल्पिक अर्थ संयम किया है। उनका कथन है कि संयम परुष होता है, क्योंकि उसमें कर्मों का श्लेष नहीं होता, ममत्व नहीं रहता और वह सामान्य शक्ति वाले व्यक्तियों के द्वारा अयापनीय होता है अथवा संयम परुष इसलिए है कि संयमी मुनि को अंत-प्रान्त आहार का सेवन करना होता है।'
इस पूरे चरण का अर्थ है--'सत्य कठोर होता है, मुनि इसे जाने ।' चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-संयम तथ्य है, इसे साक्षात् जाने ।'
वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-संयम परमार्थभूत, वास्तविक और हितकर है। उसका स्वतः पालन कर मुनि सम्बग् ज्ञान करे।' ७९.न अपनी तुच्छता प्रदशित करे (णो तुच्छए)
मुनि अपनी तुच्छता प्रदर्शित न करे । इसका तात्पर्य है कि मुनि किसी अर्थ विशेष या लब्धि विशेष की प्राप्ति कर अथवा पूजा-सत्कार आदि प्राप्त कर उन्मत्त न हो । उन्मत्त होना अपनी तुच्छता दिखाना है, यह वृत्तिकार का अर्थ है।' चूणि के अनुसार इसका अर्थ है-मुनि जैसे तुच्छ कठियारे को धर्म का उपदेश देता है, वैसे ही वह राजा को भी उपदेश दे ।'
श्लोक २२:
८०. सत्य के प्रति विनम्र होकर प्रतिपादन करे (संकेज्ज)
सत्य की साधना करने वाला भिक्षु-मैं ही इस अर्थ का जानकार हूं, दूसरा नहीं-इस प्रकार गर्व न करे । वह अपनी उदंडता को मिटाए । वह गूढार्थ की अभिव्यक्ति करता हुआ सशंक होकर प्रतिपादन करे। अथवा अर्थ को स्पष्टता से जानता हुआ, अर्थ के प्रति निःशंक होने पर भी, वह इस प्रकार से उसको प्रस्तुत न करे जिससे दूसरे में शंका पैदा हो।'
तत्त्व की व्याख्या करते समय वह नम्रतापूर्वक यह कहे-मैं इस तत्त्व का इतना ही अर्थ जानता हूं। इससे आगे जिन भगवान् जानें ।' चूर्णिकार ने यह अर्थ संकेज्ज और संकितभाव-इन दो पदों के आधार पर किया है।"
ज्ञानी मनुष्य सत्य के प्रति समर्पित होता है । वह ऐसा कोई वचन नहीं बोलता जिससे सत्य की प्रतिमा खंडित हो। सत्य हैं-द्रव्य और पर्याय । अनेक द्रव्य और अनन्त पर्याय । उन सबको जानना प्रत्येक सत्यान्वेषी के लिए भी संभव नहीं है। सत्य १. चूणि, पृ० २३५ : तथ्यं संयमम् ।। २. वृत्ति, पत्र २५६ : 'तथ्य' मिति परमार्थतः सत्यम् . . . . यदि वा तथ्यं-परमार्थभूतमकृत्रिममप्रतारकं । ३. चूणि, पृ० २३५ : राग-द्वेषबन्धनाभावात् फरुषः संयमः, कर्मणामनाथय इत्यर्थः । ४. वृत्ति, पत्र २५६ : परुषं-कर्मसंश्लेषाभावान्निर्ममत्वादल्पसत्त्वर्दुत्नुष्ठेयत्वाद्वा कर्कशमन्तप्रान्ताहारोपभोगाद्वा परुष-संयमम् । ५. चूणि, पृ० २३५ । ६. वृत्ति, पत्र २५६ । ७. वृत्ति, पत्र २५६ : तथा स्वतः कञ्चिदर्थविशेष परिज्ञाय पूजासत्कारादिकं वाऽवाप्य न तुच्छो भवेद् -नोन्मादं गच्छेत् । ८. चूणि, पृ. २३५ : जधा तुच्छस्स कधेति तणहारगस्स वि तथा राज्ञोऽपि । ६. वृत्ति, पत्र २५६ : साधुर्व्याख्यानं कुर्वनर्वाग्दशित्वादर्थनिर्णय प्रति अशतिभावोऽपि 'शङकेत'-औद्धत्यं परिहरनहमेवार्थस्य वेत्ता
नापरः कश्चिदित्येवं गर्व न कुर्वीत, किंतु विषममर्थ प्ररूपयन् साशङ्कमेव कथयेद, यदि वा परिस्फुर मप्यशङ्कित
भावमप्यर्थ न तथा कथयेत् यथा परः शङ्केत । १०. चूणि, पृ० २३५ : यङ्कितमस्य ज्ञानादिषु तन्न कथयति, अपृष्टः पृष्टो वा शङ्केत शङ्कितभावः-एवं तावद् ज्ञायते, अतः परं जिना
जानन्ति।
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