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सूयगडो १
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अध्ययन २ : टिप्पण ५२-५७
श्लोक ४१ ५२. अर्थ (अट्ठे)
चूर्णिकार ने इसका अर्थ मोक्ष और उसके कारणभूत ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप आदि किया है। वृत्तिकार ने इसके द्वारा मोक्ष और उसके कारणभूत संयम को ग्रहण किया है।
श्लोक ४२ ५३. शीतोदक (सजीव जल) (सीओदग)
___ इसका शाब्दिक अर्थ है-ठंडा पानी। आगमिक परिभाषा में इसका अर्थ है-सजीव पानी। गर्म जल या शस्त्रभूत पदार्थों से उपहत जल निर्जीव हो जाता है। ५४. न पीने वाले (पडिदुगंछिणो)
प्रतिजुगुप्सी का अनुवाद 'न पीने वाले' किया गया है । जो जिसका सेवन नहीं करता, वह उसके प्रति जुगुप्सा करता है। यह चूर्णिकार की व्याख्या है। उन्होंने बताया है कि ब्राह्मण गोमांस, मद्य, लहसुन और प्याज से जुगुप्सा करते हैं, इसलिए उन्हें नहीं खाते । वे गोमांस आदि खाने वालों से भी जुगुप्सा करते हैं।' ५५. निष्काम (अपडिण्णस्स)
कामनापूर्ति के लिए संकल्प नहीं करने वाला अप्रतिज्ञ कहलाता है। 'इस तपस्या से मुझे यह फल मिलेगा'-इस आशंसा से तप नहीं करना चाहिए। स्थान, आहार, उपधि और पूजा के लिए भी कोई प्रतिज्ञा नहीं करनी चाहिए। मुनि को सर्वथा निष्काम होना चाहिए। ५६. प्रवृत्ति से दूर रहने वाले (लवावसक्किणो)
इसमें दो शब्द हैं-लव और अवष्वष्की। लव का अर्थ है-कर्म। जिस प्रवृत्ति से कर्म का बंध होता है उससे दूर रहने वाला 'लव-अवष्वष्की' कहलाता है।' ५७. गृहस्थ के पात्र में भोजन नहीं करता (गिहिमत्तेऽसणं ण भुजई)
गृहस्थ के पात्र में भोजन करने से पश्चात्-कर्म दोष होता है। भिक्षु शीतोदक से जुगुप्सा करता है और गृहस्थ भोजनपात्र को साफ करने लिए शीतोदक का प्रयोग करता है, इसलिए संयमभाव की सुरक्षा के लिये यह निर्देश दिया गया है कि भिक्षु गृहस्थ के पात्र में भोजन न करे ।'
देखें-दसवेआलियं ६।५१ का टिप्पण । १. चूणि, पृ०६५ : अर्थो नाम मोक्षार्थः तत्कारणादीनि च ज्ञानादीनि । २. वृत्ति, पत्र ६७ : अर्यो मोक्ष: तत्कारणभूतो वा संयमः । ३. (क) चूणि, पृ० ६५ : सीतोदगं णाम अविगतजीवं अफासुगं ।
(ख) वृत्ति, पत्र ६७ : सीओदग इत्यादि शीतोदकम्-अप्रासुकोदकम् । ४. चूणि, पृ०६५ : प्रतिदुगुंछति णाम ण पिबति यो हि यन्नाऽसे वति स तद् जुगुप्सत्येव, जधा धीयारा गोमांस-मद्य-लसुन-पलण्डं
दुगुंछति, न केवलं धोयारा गोमांसं दुगुंछति तदाशिनोऽपि जुगुप्सति । ५. (क) चूणि पृ०६५ : अपडिण्णो णाम अप्रतिज्ञः नास्थ प्रतिज्ञा भवति यया मम अनेन तपसा इत्थं णाम भविष्यतीति......आहार
उवधि-पूयाणिमित्तं वा अप्रतिज्ञः ।। (ख) वृत्ति पत्र ६७ : न विद्यते प्रतिज्ञा-निदानरूपा यस्य सोऽप्रतिज्ञोऽनिदान इत्यर्थः । ६. (क) चूगि पृ० ६५ : लवं कर्म येन तत् कर्म भवति तत आधवात स्तोकादपि अवसक्कति ।
(ख) वृत्ति, पत्र ६७ : लवं कर्म तस्मात् अवसप्पिणो ति -अवसर्पिण: यदनुष्ठान कर्मबन्धोपादानभूतं तत्परिहारिण इत्यर्थः । ७. चूणि, पृ० ६५ : मा भूत् पच्छाकम्मदोषो भविस्सति । णढे हिते वीसरिते स एव सीतोदगवधः स्यादिति ।
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