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________________ सूयगडो १ १०६ अध्ययन २: टिप्पण ५८-६१ श्लोक ४७: ५८. मैंने परम्परा से यह सुना है (अणुस्सुयं) यह परंपरा का सूचक शब्द है। सूत्रकार कहते हैं-मैंने स्थविरों से सुना और उन्होंने अपने पूर्ववर्ती स्थविरों से सुना। इस प्रकार यह परंपरा से श्रुत है।' ५६. सब विषयों में प्रधान (उत्तर) मैथुन स्पर्शन इन्द्रिय का विषय है। चूर्णिकार के अनुसार शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों में यह सबसे दुर्जेय है, इसलिए यह सबसे बड़ा या प्रधान है। 'उत्तरा' के स्थान पर यह विभक्तिरहित पद है। ६०. काश्यप (महावीर या ऋषभ) के (कासवस्स) मुनि सुव्रत और अर्हत् अरिष्टनेमि के अतिरिक्त शेष सब तीर्थकर ईक्ष्वाकुऽवंश के हैं। इन सबका गोत्र काश्यप है। भगवान् ऋषभ का एक नाम कश्यप है । शेष सभी तीर्थकर उनके अनुवर्ती हैं, इसलिए वे सभी काश्यप कहलाते हैं । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने काश्यप के दो अर्थ किए हैं-भगवान् महावीर और भगवान ऋषभ ।' भगवान् ऋषभ और भगवान महावीर की साधना-पद्धति में सर्वाधिक साम्य है। दोनों की साधना-पद्धति में पांच महाव्रतों का विधान है, इसलिए काश्यप शब्द के द्वारा ऋषभ और महावीर का सूचन देना ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत मूल्यवान् है । देखें-२०७४ का टिप्पण । ६१. आचरित धर्म का अनुचरण करने वाले मुनि (अणुधम्मचारिणो) ___अनुधर्मचारी का अर्थ अनुचरणशील होता है। गुरु ने जैसा आचरण किया वैसा आचरण करने वाला शिष्य अनुधर्मचारी होता है।' अनुधर्म शब्द में विद्यमान 'अनु' शब्द को चार अर्थों में व्युत्पन्न किया गया है-अनुगत, अनुकूल, अनुलोम, अनुरूप । अनुगत+धर्म=अनुधर्म अनुकूल+धर्म=अनुधर्म अनुलोम+धर्म=अनुधर्म अनुरूप+धर्म=अनुधर्म । आचारांग का-'से जं च आरभे, जं च णारभे, अणारखं च णारभे'-यह सूत्र 'अनुधर्म' की व्याख्या प्रस्तुत करता है । इसका तात्पर्य है-वह (कुशल) किसी प्रवृत्ति का आचरण करता है और किसी का आचरण नहीं करता; मुनि उसके द्वारा अनाचीर्ण प्रवृत्ति १. (क) चूणि पृष्ठ ६६ : अनुश्रुतं स्थविरेभ्यः तैः पूर्व श्रुतम् पश्चात् तेभ्यो मयाऽनुश्रुतम् । (ख) वृत्ति, पत्र ६६ : मयतदनु-पश्चाद् श्रुतं एतच्च सर्वमेव प्रागुक्तं यच्च वक्ष्यमाणं तन्नाभेयेनाऽऽदितीर्थकृता पुत्रानुद्दिश्याभिहितं सत् पाश्चात्यगणधराः सुधर्मस्वामिप्रभृतयः स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादयन्ति अतो मयतदनुश्रुतमित्यनवद्यम् । २. चूणि, पृष्ठ ६६,६७ : उत्तरा नाम शेषविषयेभ्यः ग्रामधर्मा एव गरीयांसः ।.........अथवा उत्तराः शब्दादयो ग्रामधर्मा मनुष्याणां चक्रवर्ति-बलदेव-वासुदेव-मण्डलिकानाम् । ३. (क) चणि, पृ० ६७ : काश्यपः वर्द्धमानस्वामी........ अथवा ऋषभ एव काश्यपः । (ख) वृत्ति, पत्र ६६ : काश्यपस्य ऋषभस्वामिनो वर्धमानस्वामिनो वा। ४. चूणि, पृष्ठ ६७ : अणुधम्मचारिणो.........तेन चीर्णमनुचरन्ति यथोद्दिष्टम् । ५. वही, पृष्ठ ७६ : अनुगतो वा अनुकूलो वा अनुलोमो वा अनुरूपो वा धर्मः अनुधर्मः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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