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सूयगडो १
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अध्ययन २: टिप्पण ६२-६३ का आचरण न करे।
निशीथ भाष्य में लोकोत्तर धर्मों को 'अनुगुरु' बतलाया गया है।' चूर्णिकार ने लिखा है-वे प्रलंब सब तीर्थंकरों, गौतम आदि गणधरों तथा जम्बू आदि आचार्यों द्वारा अनाचीर्ण हैं । वर्तमान आचार्यों द्वारा भी अनाचीर्ण हैं, इसलिए वर्जनीय हैं। इस प्रतिपादन पर शिष्य ने प्रश्न उपस्थित किया-जो तीर्थंकरों द्वारा अनाचीर्ण है, वह हम सबके लिए अनाचीर्ण है। क्या यह सही है ? गुरु ने उत्तर दिया-यह सही है। और इसलिए सही है कि लोकोत्तर धर्म 'अनुधर्म' होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि आचार्यों के द्वारा जो चीर्ण, चरित, आचेष्टित है वह उत्तरकालीन शिष्यों द्वारा भी अनुचरणीय है। इसका अर्थ है-अनुधर्मता।'
तीर्थकर या गुरु का कोई अतिशय है, उसमें अनुधर्मचारिता नहीं होती। अन्य साधुओं में जो सामान्य धर्मता है वहां अनुधर्म का विचार किया जाता है।
श्लोक ४६: ६२. जो विषयों के प्रति नत होते हैं (दूवण)
यह शब्द 'दूम' धातु से निष्पन्न है। इसका अर्थ है-संताप करने वाला। मैथुन मनुष्य को संतप्त करता है इसलिए इसे 'दूअण' कहा गया है । प्राकृत में 'मकार' के स्थान पर 'वकार' होता है।
चूर्णिकार ने इसका अर्थ-विषयों के प्रति अत्यन्त आसक्त किया है।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-दुष्ट धर्म के प्रति उपनत, मन को दुःखी करने वाला या उपतापकारी शब्द आदि विषय ।'
श्लोक ५०: ६३. श्लोक ५०
प्रस्तुत श्लोक में काहिए, पासणिए, संपसारए, कयकिरिए और मामए-ये पांच शब्द विशेष विमर्श योग्य हैं । प्रस्तुत आगम के नौवें अध्ययन के सोलहवें श्लोक में संपसारी, कयकिरिए और पसिणायतणाणि-ये तीन शब्द मिलते हैं। वहां 'संपसारए' के स्थान पर 'संपसारी' तथा 'पासगिए' के स्थान पर 'पसिणायतणाणि' का प्रयोग किया गया है । चूर्णिकार ने भी वहां 'पासणियायतनानि' पाठ स्वीकार किया है।
आयारो ५८७ में ये पांच शब्द प्राप्त हैं—काहिए, पासणिए, संपसारए, ममाए, कयकिरिए। वहां इनका अर्थ इस प्रकार
० काथिक-काम-कथा, शृंगार-कथा करने वाला। • पश्यक-स्त्रियों को वासनापूर्ण दृष्टि से देखने वाला।
• संप्रसारक-एकान्त में स्त्रियों के साथ बातचीत करने वाला। १. आयारो २०१८३, पृ० १०७ । २. निशीथभाष्य गाथा ४८५५ : अवि य हु सम्वपलंबा, जिणगणहरमाइएहिऽणाइण्णा ।
लोउत्तरिया धम्मा, अणुगुरुणो तेण तव्वज्जा। ३. वही, गाथा ४८५५, चूणि पृ० ५२२ : ते य सम्वेहि तित्यकरहिं गोयमादिहिं य गणधरेहि, आदिसद्दातो जंबूणाममादिएहि आयरिएहि जाव संपदमवि अणाइण्णा, तेणं कारणेणं ते वज्जणिज्जा : आह 'तो कि जं जिणेहि अणाइण्णा तो एयाए चेव आणाए वज्जणिज्जा?'
ओमित्युच्यते, लोउत्तरे जे धम्मा ते अणुधम्मा। किमुक्तं भवति ? जं तेहिं गुरूहि चिण्णं चरिए आचेट्ठियं तं पच्छिमेहि वि अणुचरियव्वं, जम्हा य एवं तम्हा तेहि पलंबा ण सेविया,
पच्छिमेहि वि ण सेवियव्वा । अतो ते वज्जणिज्जा । एवं अणुधम्मया भवति । ४. वही, गाथा ४८५६, चूणि भाग ३, पृ० ५२२ : कहं ? उच्यते - गुरु तीर्थकरः । अतिशयास्तस्यैव भवंति नान्यस्य । अत्रानुधर्मता न
चिन्त्यते । ५. चूणि, पृष्ठ ६७ : दूपनताः शाक्यादयः ते हि मोक्षाय प्रपन्ना अपि विषयेषु प्रणता रसादिषु । ६. वृत्ति, पत्र ६६ : दुष्टधर्म प्रत्युपनताः कुमार्गानुष्ठायिनस्तीथिकाः यदि वा-दूमण त्ति दुष्टमनःकारिण उपतापकारिणो वा शब्दा
क्यो विषयास्तेषु ।
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