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सूयगजे १
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अध्ययन २: टिप्पण ४७-५१
श्लोक ३६ ४७. बायो (ताइणो)
त्राता तीन प्रकार के होते हैं
१. आत्मत्राता-जिनकल्पिक मुनि । २. परत्राता-अर्हत् ।
३. उभयत्राता-गच्छवासी मुनि । ४८. "आसन का (आसणं)
पीढ, फलक आदि आसन हैं । चूर्णिकार ने इस शब्द के द्वारा उपाश्रय का ग्रहण किया है।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ वसति माना है।'
श्लोक ४० ४६. गर्म और तप्त जल को पीने वाले (उसिणोदगतत्तभोइणो)
उष्ण और तप्त-ये दोनों शब्द समानार्थक हैं। चूर्णिकार ने बताया है कि धूप से गरम बना हुआ पानी मुनि को नहीं लेना चाहिए । यह तप्त शब्द द्वारा सूचित किया है।
वृत्तिकार ने 'उष्णोदकतप्तभोजी'-इस शब्द का अर्थ अत्यन्त उबले हुए पानी को पीने वाला किया है। उन्होंने वैकल्पिक रूप में इसका अर्थ इस प्रकार किया है-गर्म पानी को ठंडा किए बिना पीने वाला। ५०. तथागत (अप्रमत्त) के (तहागयस्स)
चूर्णिकार ने 'तथागत' का अर्थ-वैराग्यवान्, वीतराग या अप्रमत्त किया है ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'जहावाई तहाकारी' अर्थात् वीतराग किया है। ५१. असमाधि होती है (असमाही)
असमाधि का मूल कारण है-मूर्छा । राजाओं की ऋद्धि देखकर मूर्छा उत्पन्न न हो, इस दृष्टि से उनके संसर्ग का निषेध प्रस्तुत श्लोक में किया गया है । यह चूर्णिकार का अभिमत है।
वृत्तिकार ने बतलाया है कि राजाओं का संसर्ग अनर्थ का हेतु है । उस संसर्ग में स्वाध्याय आदि में बाधा उपस्थित होती है।
ऐतिहासिक दृष्टि से यह ज्ञात होता है कि जैन मुनि धर्म को राज्याश्रित बनाने के पक्ष में नहीं थे। राजा की इच्छा का पालन करने पर अपनी समाचारी का भंग होता है और उसकी इच्छा का अतिक्रमण करने पर अनेक कठिनाइयों का सामना करना पडता है, इसलिए राजाओं के संसर्ग को हितकर नहीं माना। १. चणि, पृष्ठ ६४ : त्रायतीति त्राता, स च त्रिविध:-आत्म० पर० उभयत्राता जिनकल्पिका-ऽहंब-गच्छवासिनः । २. वही, पृ०६४ : आसनग्रहणादुपाश्रयोऽपि गृहीतः । ३. वृत्ति, पत्र ६७ : आस्यते-स्थीयते यस्मिन्निति तवासनं-बसत्यादि । ४. चणि, पृ० ६४ : उसिणग्रहणात् फासुगोदग-सोवीरग-उण्होदगादीणि, तप्तग्रहणात् स्वाभाविकस्याऽतपोदकादेः प्रतिषेधार्थः । ५. वत्ति, पत्र ६७ : उष्णोदकतप्तभोजिन: त्रिदण्डोद्वत्तोष्णोदकभोजिन: यदि वा उष्णं सन्न शोतीकुर्यादिति तप्तग्रहणम् । ६. चणि, पृ०६४ : तधागतस्सवि त्ति वैराग्यगतस्यापि । अथवा यथाऽन्ये, यथा ज (जि) नादयो गता वीतरागा तथा सो वि अप्रमादं
प्रति गतः। ७. वृत्ति, पत्र ६७ : तथागतस्य यथोक्तानुष्ठायिनः। ८ चूणि, पृ० ६४ : रिद्धि दृष्ट्वा ता मा भून्मूच्छा कुर्यात् मूर्च्छतश्च असमाधी भवति । ६. वृत्ति, पत्र ६७ : राजादिभिः साद्धं यः संसर्गः सम्बन्धोऽपावसाधुः अनर्थोदयहेतुत्वात् .........राजादिसंसर्गवशाद् असमाधिरेव
अपध्यानमेव स्यात् न कदाचित् स्वाध्यायादिकं भवेदिति ।
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